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			 ई-पुस्तकें >> उर्वशी उर्वशीरामधारी सिंह दिनकर
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			 205 पाठक हैं  | 
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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा
 मेरी भू-स्मिति को देख चकित, विस्मित, विभोर,
 शूरमा निमिष खोले अवाक रह जाते हैं;
 श्लथ हो जाता स्वयमेव शिंजिनी का कसाव,
 संस्रस्त करों से धनुष-बाण गिर जाते हैं।
 कामना-वह्नि की शिखा मुक्त मैं अनवरुद्ध,
 मैं अप्रतिहत, मैं दुर्निवार;
 मैं सदा घूमती फिरती हूँ,
 पवनान्दोलित वारिद-तरंग पर समासीन,
 नीहार-आवरण में अम्बर के आर-पार;
 उड़ते मेघों को दौड़ बाहुओं में भरती,
 स्वप्नों की प्रतिमाओं का आलिंगन करती।
 विस्तीर्ण सिन्धु के बीच शून्य, एकांत द्वीप, यह मेरा उर।
 देवालय में देवता नहीं, केवल मैं हूँ।
 मेरी प्रतिमा को घेर उठ रही अगरु-गन्ध,
 बज रहा अर्चना में मेरी, मेरा नुपूर।
 मैं कला-चेतना का मधुमय, प्रच्छन्न स्रोत,
 रेखाओं में अंकित कर अंगों के उभार
 भंगिमा, तरंगित वर्तुलता, वीचियाँ, लहर,
 तन की प्रकांति अंगों में लिये उतरती हूँ।
 पाषाणों के अनगढ़ अंगों को काट-छाँट,
 मैं ही निविडस्तननता, मुष्टिमध्यमा,
 मदिरलोचना, कामलुलिता नारी,
 प्रस्तावरण कर भंग,
 तोड़ तम को उन्मत्त उभरती हूँ।
 भू-नभ का सब संगीत नाद मेरे निस्सीम प्रणय का है,
 सारी कविता, जयगान, एक मेरी त्रयलोक-विजय का है।
 प्रिय मुझे प्रखर कामना-कलित, संतप्त, व्यग्र, चंचल चुम्बन,
 प्रिय मुझे रसोदधि में निमग्न उच्छल, हिल्लोल-निरत जीवन।
 तारों की झिलमिल छाया में फूलों की नाव बहाती हूँ,
 मैं नैश प्रभा, सब के भीतर निश की कल्पना जगाती हूँ।
 मादन सुगन्ध पवमान-दलित सन्ध्या-तन से उठनेवाली,
 नभ से अलिंगित कुमुद्वती, चन्द्रिका-यामिनी मतवाली,
 कबरी के फूलों का सुवास, आकुंचित अधरों का कम्पन,
 परिरम्भ-वेदना से विभोर, कंटकित अंग, मधुमत्त नयन;
 दो प्राणों से उठने वाली वे झंकृतियाँ गोपन, मधुमय,
 जो अगुरु-धूम-सी हो जाती ऊपर उठ एक अपर में लय।
 दो दीपों की सम्मिलित ज्योति, वह एक शिखा जब जगती है,
 मन के अगाध रत्नाकर में यह देह डूबने लगती है।
 दो हृदयों का मूक मिलन,  तन शिथिल,  स्रस्त अतिशय सुख से,
 अलसित आंखें देखतीं न कोई शब्द निकलता है मुख से।
 			
		  			
						
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