ई-पुस्तकें >> उर्वशी उर्वशीरामधारी सिंह दिनकर
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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा
भाग - 7
उर्वशी
पर, क्या बोलूँ? क्या कहूँ?
भ्रांति, यह देह-भाव।
मैं मनोदेश की वायु व्यग्र, व्याकुल, चंचल;
अवचेत प्राण की प्रभा, चेतना के जल में,
मैं रूप-रंग-रस-गन्ध-पूर्ण साकार कमल।
मैं नहीं सिन्धु की सुता;
तलातल-अतल-वितल-पाताल छोड़,
नीले समुद्र को फोड़ शुभ्र, झलमल फेनांकुश में प्रदीप्त,
नाचती उर्मियों के सिर पर,
मैं नहीं महातल से निकली।
मैं नहीं गगन की लता,
तारकों में पुलकित फूलती हुई,
मैं नहीं व्योमपुर की बाला,
विधु की तनया, चन्द्रिका-संग,
पूर्णिमा-सिन्धु की परमोज्ज्वल आभा-तरंग,
मैं नहीं किरण के तारों पर झूलती हुई भू पर उतरी।
मैं नाम-गोत्र से रहित पुष्प,
अम्बर में उड़ती हुई मुक्त आनन्द-शिखा,
इतिवृत्तहीन,
सौन्दर्य चेतना की तरंग;
सुर-नर-किन्नर-गन्धर्व नहीं,
प्रिय मैं केवल अप्सरा,
विश्वनर के अतृप्त इच्छा-सागर से समुद्भूत।
कामना-तरंगों से अधीर,
जब विश्वपुरुष का हृदय-सिन्धु,
आलोड़ित, क्षुभित, मथित होकर,
अपनी समस्त बड़वाग्नि,
कण्ठ में भरकर मुझे बुलाता है,
तब मैं अपूर्वयौवना,
पुरुष के निभृत प्राणतल से उठकर,
प्रसरित करती निर्वसन, शुभ्र, हेमाभ कांति,
कल्पना लोक से उतर भूमि पर आती हूँ,
विजयिनी विश्वनर को अपने उत्तुंग वक्ष,
पर सुला अमित कल्पों के अश्रु सुखाती हूँ।
जन-जन के मन की मधुर वह्नि, प्रत्येक हृदय की उजियाली,
नारी की मैं कल्पना चरम, नर के मन में बसने वाली।
विषधर के फण पर अमृतवर्त्ति ;
उद्धत, अदम्य, बर्बर बल पर,
रूपांकुश, क्षीण मृणाल-तार।
मेरे सम्मुख नत हो रहते गजराज मत्त;
केसरी, शरभ, शार्दूल भूल निज हिंस्र भाव,
गृह-मृग-समान निरविष, अहिंस्र बनकर जीते।
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