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			 ई-पुस्तकें >> उर्वशी उर्वशीरामधारी सिंह दिनकर
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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा
 और करूँगी क्या कहकर मैं शमित कुतुहल को भी?
 मैं अदेह कल्पना, मुझे तुम देह मान बैठे हो;
 मैं अदृश्य, तुम दृश्य देख कर मुझको समझ रहे हो,
 सागर की आत्मजा, मानसिक तनया नारायण की।
 कब था ऐसा समय कि जब मेरा अस्तित्व नहीं था?
 कब आएगा वह भविष्य कि जिस दिन मैं नहीं रहूँगी?
 कौन पुरुष जिसकी समाधि में मेरी झलक नहीं है?
 कौन त्रिया, मैं नहीं राजती हूँ जिसके यौवन में?
 कौन लोक, कौंधती नहीं मेरी ह्लादिनी जहाँ पर?
 कौन मेघ, जिसको न सेज मैं अपनी बना चुकी हूँ?
 कहूँ कौन सी बात और रहने दूँ कथा कहाँ की?
 मेरा तो इतिहास प्रकृति की पूरी प्राण-कथा है,
 उसी भांति निस्सीम, असीमित जैसे स्वयं प्रकृति है।
 
 पुरुरवा
 सत्य मानकर कब समझा भिन्न तुम्हें सपने से?
 नारी कहकर भी कब मैंने कहा, मानुषी हो तुम?
 अशरीरी कल्पना, देह धरने पर भी, आंखों से
 रही झांकती सदा, सदा मुझको यह भान हुआ है,
 बांहों में जिसको समेटकर उर से लगा रहा हूँ,
 रक्त-मांस की मूर्त्ति नहीं,वह सपना है, छाया है।
 छिपा नहीं देवत्व, रंच भर भी, इस मर्त्य-वसन में,
 देह ग्रहण करने पर भी तुम रही अदेह विभा-सी।
 द्वाभा कहाँ? जहाँ भी ये युग चरण मंजु पड़ते हैं,
 तुम्हें घेरकर खुली मुक्त आभा-सी छा जाती है;
 और देखता हूँ मैं, जो अन्यत्र नहीं दिखता है।
 तब भी हो गोधूलि कहीं तो उसका पटल हटाकर,
 आज चाहता हूँ समग्र दर्शन मैं उस सपने का,
 शेष आयु के लिए जिसे निज दीपक बना चुका हूँ,
 कौन सत्य ऐसा कराल है, जिसके अनावरण से
 अग्नि प्रकट होगी, मेरे ये लोचन जल जाएंगे,
 याकि अशनि-आघात घोर, मैं जिसको सह न सकूँगा?
 कहो मुक्त सब कुछ, समक्ष यह प्रतिमा अगर खड़ी है,
 मुझे भीति कुछ नहीं, प्रलय के भी वज्राघातों से,
 सह लूँगा अनिमेष देखते हुए तुम्हारे मुख को।
 
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