ई-पुस्तकें >> उर्वशी उर्वशीरामधारी सिंह दिनकर
|
7 पाठकों को प्रिय 205 पाठक हैं |
राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा
ये लोचन, जो किसी अन्य जग के नभ के दर्पण हैं;
ये कपोल, जिसकी द्युति में तैरती किरण ऊषा की;
ये किसलय से अधर, नाचता जिन पर स्वयं मदन है,
रोती है कामना जहाँ पीड़ा पुकार करती है;
ये श्रुतियाँ जिनमें उड़ुओं के अश्रु-बिन्दु झरते हैं;
ये बाँहें, विधु के प्रकाश की दो नवीन किरणों सी;
और वक्ष के कुसुम-पुंज, सुरभित विश्राम-भवन ये,
जहाँ मृत्यु के पथिक ठहर कर श्रांति दूर करते हैं।
यह मुसकान, विभा जैसे दूरागत किसी किरण की;
ध्यान जगा देती मन में यह किसी असीम जगत् का,
जिसे चाहता तो हूँ, पर, मैंने न कभी देखा है।
यह रहस्यमय रूप कहीं त्रिभुवन में और नहीं है,
सुर-किन्नर-गन्धर्व-लोक में अथवा मर्त्य-भुवन में।
तुम कैसे, तब कहो, भला, उस भांति जनम सकती हो,
जैसे जग में अन्य, अपर सौन्दर्य जन्म लेते हैं?
कहो, सत्य ही, तुम समुद्र के भीतर से निकली थीं?
या कि शून्य से प्रकट हो गई सहसा चीर गगन को?
अथवा जब अरूप सुषमा को रूपायित करने को,
ऋषि सौन्दर्य-समाधि बान्ध, तन्मय छवि के चिंतन में,
बैठे थे निश्चेत, तभी नारी बन निकल पड़ीं तुम,
नारायण की महाकल्पना से, एकायन मन से?
उर्वशी
मैं मानवी नहीं, देवी हूँ; देवों के आनन पर,
सदा एक झिलमिल रहस्य-आवरण पड़ा होता है।
उसे हटाओ मत, प्रकाश के पूरा खुल जाने से,
जीवन में जो भी कवित्व है, शेष नहीं रहता है।
स्पष्ट शब्द मत चुनो, चुनो उनको जो धुन्धियाले हैं;
ये धुँधले ही शब्द ऋचाओं में प्रवेश पाने पर,
एक साथ जोड़ते अनिश्चित को निश्चित आशय से।
और जहाँ भी मिलन देखते हो प्रकाश-छाया का,
वही निरापद बिन्दु मनुज-मन का आश्रय शीतल है।
सघन कुंज, गोधुली, चाँदनी, ये यदि नहीं रहें तो
दिन की खुली धूप में कब तक जीवन चल सकता है?
द्वाभा का वरदान, सभी कुछ अर्धस्फुट, झिलमिल है,
स्वप्न स्वप्न से, हृदय हृदय से मिलकर सुख पाते हैं,
यदि प्रकाश हो जाए और जो कुछ भी छिपा जहाँ है,
सब-के-सब हो जाएँ सामने खड़े नग्न रूपों में,
कौन सहेगा यह भीषण आघात भेद विघटन का?
इसीलिए कहती हूँ, अब तक जितना जान सके हो,
उतना ही है अलम; और आगे इससे जाने पर,
स्यात्, कुतुहल-शमन छोड़ कुछ हाथ नहीं आएगा।
|