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उर्वशी

रामधारी सिंह दिनकर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9729
आईएसबीएन :9781613013434

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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा


एक पुष्प में सभी पुष्प, सब किरणें एक किरण में,
तुम सन्हित, एकत्र एक नारी में सब नारी हो।
प्रति युग की परिचिता, रसाकर्षण प्रति मंवंतर का,
विश्व-प्रिया, सत्य ही, महारानी सब के सपनों की।
पर, दिगंत-व्यापिनी चन्द्रिका मुक्त विहरनेवाली,
व्योम छोड़कर सिमट गई जो मेरे भुज पाशों में;
रस की कादम्बिनी, विचरती हुई अनंत गगन में,
अकस्मात् आकर प्रसन्न जो मुझ पर बरस गई है,
सो केवल सन्योग मात्र है? या इस गूढ़ मिलन के,
पीछे जन्म-जन्म की कोई लीला छिपी हुई है?
जहाँ-जहाँ तुम खिलीं स्यात् मैं ही मलयानिल बनकर
तुम्हें घेरता आया हूँ अपनी आकुल बाँहों में,
जिसके भी सामने किया तुम ने कुंचित अधरों को,
लगता है, मैं ही सदैव वह चुम्बन-रसिक पुरुष था।

मेरी ही थी तपन जिसे फूलों के कुंज-भवन में,
जन्म-जन्म में तुम आलिंगन से हरती आई हो।
कल-कल्प में सुला प्रणय-उद्वेलित वक्षोजों पर
अश्रु पोंछती आई हो मेरे ही आर्त्त दृगों का।
जहाँ-जहाँ तुम रही, निष्पलक नयनों की आभा से,
रहा सींचता मैं, आगे तुम जहाँ-जहाँ जाओगी,
साथ चलूँगा मैं सुगन्ध से खिंचे हुए मधुकर-सा,
या कि राहु जैसे विधु के पीछे-पीछे चलता है।

उर्वशी
चन्द्रमा चला, रजनी बीती हो गया प्रात;
पर्वत के नीचे से प्रकाश के आसन पर,
आ रहा सूर्य फेंकते बाण अपने लोहित,
बिंध गया ज्योति से, वह देखो, अरुणाभ शिखर।
हिम-स्नात, सिक्त वल्लरी-पुजारिन को देखो,
पति को फूलों का नया हार पहनाती है,
कुंजों में जनमा है कल कोई वृक्ष कहीं,
वन की प्रसन्न विहगावलि सोहर गाती है।

कट गया वर्ष ऐसे जैसे दो निमिष गए,
प्रिय! छोड़ गन्धमादन को अब जाना होगा,
इस भूमि-स्वर्ग के हरे-भरे, शीतल वन में,
जानें, कब राजपुरी से फिर आना होगा!
कितना अपार सुख था, बैठे चट्टानों पर
हम साथ-साथ झरनों में पाँव भिगोते थे,
तरु-तले परस्पर बाँहों को उपधान बना,
हम किस प्रकार निश्चिंत छाँह में सोते थे!
जाने से पहले चलो, आज जी खोल मिलें,
निर्झरी, लता, फूलों की डाली-डाली से,
पी लें जी भर पर्वत पर का नीरव प्रकाश,
लें सींच हृदय झूमती हुई हरियाली से।

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