ई-पुस्तकें >> उर्वशी उर्वशीरामधारी सिंह दिनकर
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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा
तन का काम अमृत, लेकिन, यह मन का काम गरल है।
फलासक्ति दूषित कर देती ज्यों समस्त कर्मों को,
उसी भाँति, वह काम-कृत्य भी दूषित और मलिन है,
स्वत:स्फूर्त जो नहीं, ध्येय जिसका मानसिक क्षुधा का,
स्वप्रयास है शमन; जहां पर सुख खोजा जाता है,
तन की प्रकृति नहीं, मन की माया से प्रेरित होकर,
जहाँ जागकर स्वयं नहीं बहती चेतना उरों की,
मन की लिप्सा के अधीन उसको जगना पड़ता है;
या जब रसावेश की स्थिति में, किसी भाँति, जाने को,
मन शरीर के यंत्रों को बरबस चालित करता है।
किंतु, कभी क्या रसावेश में कोई जा सकता है,
बिना सहज एकाग्र वृत्ति के मात्र हाँक कर तन को?
माँस-पेशियाँ नहीं जानती आनन्दों के रस को,
उसे जानती स्नायु, भोगता उसे हमारा मन है,
इसीलिए निष्काम काम-सुख वह स्वर्गीय पुलक है,
सपने में भी नहीं स्वल्प जिस पर अधिकार किसी का।
नहीं साध्य वह तन के आस्फालन या संकोचन से;
वह तो आता अनायास, जैसे बूँदें स्वाती की,
आ गिरती हैं, अकस्मात, सीपी के खुले हृदय में।
लिया-दिया वह नहीं, मात्र वह ग्रहण किया जाता है।
और पुत्र-कामना कहो तो यद्यपि वह सुखकर है,
पर, निष्काम काम का, सचमुच वह भी ध्येय नहीं है।
निरुद्देश्य, निष्काम काम-सुख की अचेत धारा में,
संतानें अज्ञात लोक से आकर खिल जाती हैं,
वारि-वल्लरी में फूलों-सी, निराकार के गृह से,
स्वयं निकल पड़ने वाली जीवन की प्रतिमाओं-सी,
प्रकृति नित्य आनन्दमयी है, जब भी भूल स्वयं को
हम निसर्ग के किसी रूप (नारी, नर या फूलों) से,
एकतान होकर खो जाते हैं समाधि-निस्तल में।
खुल जाता है कमल, धार मधु की बहने लगती है,
दैहिक जग को छोड़ कहीं हम और पहुंच जाते हैं,
मानो मायावरण एक क्षण मन से उतर गया हो।
क्या प्रतीक यह नहीं, काम-सुख गर्हित, ग्राह्य नहीं है?
वह भी ले जाता मनुष्य को ऊपर मुक्ति-दिशा में,
मन के माया-मोह-बन्ध को छुड़ा सहज पद्धति से।
पर, खोजें क्यों मुक्ति? प्रकृति के हम प्रसन्न अवयव हैं;
जब तक शेष प्रकृति, तब तक हम भी बहते जाएँगे,
लीलामय की सहज, शांत, आनन्दमयी धारा में।
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