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उर्वशी

रामधारी सिंह दिनकर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9729
आईएसबीएन :9781613013434

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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा

भाग - 6


पुरुरवा
कुसुम और कामिनी बहुत सुन्दर दोनों होते हैं,
पर, तब भी नारियाँ श्रेष्ठ हैं कहीं कांत कुसुमों से,
क्योंकि पुष्प हैं मूक और रूपसी बोल सकती है।
सुमन मूक सौन्दर्य और नारियाँ सवाक सुमन हैं।
किंतु, कहीं यदि शब्द फूटने लगें सुमुख पुष्पों से,
और लगें करने प्रसून ये गहन-गूढ़ चिंतन भी,
सब की वही दशा होगी, जो मेरी अभी हुई है।
यह प्रपात रसमयी बुद्धि का! यह हिलोर चिन्तन की!
तुम्हें ज्ञात है, मैं बहते-बहते इसकी धारा में,
किन लोकों, किन गुह्य नभों में अभी घूम आया हूँ?
आदि-अंत कुछ नहीं सूझता, सचमुच ही, जीवन का;
ग्रंथि-जाल का किसी काल-गह्वर में छोर नहीं है।
विधि-निषेध, सत्य ही स्यात्, जल पर की रेखाएं हैं।
कोई लेख नहीं उगता भीतर के अगम सलिल पर।

और ज्वार जो भी उठता ऊपर अवचेत-अतल से,
विधि-निषेध का उस पर कोई जोर नहीं चलता है।
स्यात्, योग सायास उपेक्षा भर है इस स्वीकृति की,
हम निसर्ग के बन्द कपाटों को न खोल सकते हैं;
स्यात्, साधनाएं प्रयास हैं थकी हुई प्रज्ञा को,
अन्वेषण में, किसी भांति भी, निरत किये रहने का।
सत्य, स्यात्, केवल आत्मार्पण, केवल शरणागति है,
उसके पद पर, जिसे प्रकृति तुम, मैं ईश्वर कहता हूँ।
एक कर्म, अनुगमन मूक अविगत के संकेतों का,
एक धर्म, अनुभवन निरंतर उस सुषमा, उस छवि का,
जो विकीर्ण सर्वत्र, केन्द्र बन तुम में झलक रही है।

आह, रूप यह! उड़ूं जहाँ भी, चारों ओर भुवन में,
यही रूप हँसता, प्रसन्न इंगित करता मिलता है,
सूर्य-चन्द्र में, नक्षत्रों-फूलों में, तृणों-द्रुमों में।
और यही मुख बार-बार उग पुन: डूब जाता है,
मन के अमित अगाध सिन्धु में ज्वालामयी लहर-सा,
लगता है, मानो, निकलीं तुम बाहर नहीं जलधि से,
जन्मभूमि की शीतलता में अब भी खेल रही हो।

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