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उर्वशी

रामधारी सिंह दिनकर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9729
आईएसबीएन :9781613013434

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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा


देखोगे, सुनसान नहीं यह तो पूरी बस्ती है,
नक्षत्रों की, नील गगन की, शैलों, सरिताओं की,
लता-पत्र की, हरियाली की, ऊषा की लाली की।
सभी पूर्ण, सब सुखासीन, सब के सब लीन क्रिया में,
पूछे किससे? कौन, कहाँ से सृष्टि निकल आई है?
अच्छा है, ये पेड़, पुष्प इसके जिज्ञासु नहीं हैं,
हम हैं कौन, कहाँ से आए और कहाँ जाएंगे?
सच में, यह प्रत्यक्ष जगत कुछ उतना कठिन नहीं है,
जितना हो जाता दुरूह मन के भीतर जाने पर।

वैचारिक जितना विषण्ण रहता दुरूहताओं से,
उतना खिन्न नहीं रहता है सहज मनुष्य प्रकृति का।
द्वन्द्व रंच भर नहीं कहीं भी प्रकृति और ईश्वर में,
द्वन्द्वों का आभास द्वैतमय मानस की रचना है।
यह आभास नहीं टिकता, जब मनुज जान लेता है
अप्रयास अनुभवन प्रकृति का, सहज रीति जीवन की;
क्योंकि प्रकृति औ पुरुष एक हैं, कोई भेद नहीं है।
जो भी है अवसर निसर्ग के, ईश्वर के भी क्षण हैं
धर्म-साधना कहीं प्रकृति से भिन्न नहीं चलती है।
दृश्य, अदृश्य एक हैं दोनों, प्रकृति और ईश्वर में,
भेद गुणों का नहीं, भेद है मात्र दृष्टि का, मन का।

और यहाँ यह काम-धर्म ही उज्जवल उदाहरण है।
काम धर्म, काम ही पाप है, काम किसी मानव को,
उच्च लोक से गिरा हीन पशु-जंतु बना देता है।
और किसी मन में असीम सुषमा की तृषा जगाकर,
पहुंचा देता उसे किरण-सेवित अति उच्च शिखर पर।
यह विरोध क्या है? कैसे दो फल एक ही क्रिया के,
एक अपर से, इस प्रकार, प्रतिकूल हुआ करते हैं?
सोचा है, यह प्रेम कहीं क्यों दानव बन जाता है,
और कहीं क्यों जाकर मिल जाता रहस्य-चिंतन से?
काम नहीं, इस वैपरीत्य का भी मन ही कारण है।

मन जब हो आसक्त काम से लभ्य अनेक सुखॉ पर,
चिंतन में भी उन्हीं सुखों की स्मृति ढोये फिरता है,
विकल, व्यग्र, फिर-फिर, रस-मधु में अवगाहन करने को,
स्नेहाकृष्ट नहीं, तो यत्नों से, छल से, बल से भी,
तभी काम से बलात्कार के पाप जन्म लेते हैं,
तभी काम दुर्द्धर्ष, दानवी किल्विष बन जाता है।

काम-कृत्य वे सभी दुष्ट हैं, जिनके सम्पादन में,
मन-आत्माएँ नहीं, मात्र दो वपुस् मिला करते हैं;
या तन जहां विरुद्ध प्रकृति के विवश किया जाता है,
सुख पाने को, क्षुधा नहीं केवल मन की लिप्सा से;
जहाँ नहीं मिलते नर-नारी उस सहजाकर्षण से।
जैसे दो वीचियाँ अनामंत्रित आ मिल जाती हैं,
पर, सुवर्ण की लोलुपता में छिपे-छिपे तस्कर से,
एक दूसरे का आकुल सन्धान किया करते हैं।

तन का क्या अपराध? यंत्र वह तो सुकुमार प्रकृति का;
सीमित उसकी शक्ति और सीमित आवश्यकता है।
यह तो मन ही है, निवास जिसमें समस्त विपदों का;
वही व्यग्र, व्याकुल असीम अपनी काल्पनिक क्षुधा से,
हाँक-हाँक तन को उस जल को मलिन बना देता है,
बिम्बित होती किरण अगोचर की जिस स्वच्छ सलिल में,
जिस पवित्र जल में समाधि के सहस्रार खिलते हैं।

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