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उर्वशी

रामधारी सिंह दिनकर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9729
आईएसबीएन :9781613013434

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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा


मूढ़ मनुज! यह भी न जानता, तू ही स्वयं प्रकृति है?
फिर अपने से आप भागकर कहाँ त्राण पाएगा?
सब है शून्य कहीं कोई निश्चित आकार नहीं है,
क्षण-क्षण सब कुछ बदल रहा है परिवर्तन के क्रम में,
धूमयोनि ही नहीं, ठोस यह पर्वत भी छाया है,
यह भी कभी शून्य अम्बर था और अचेत अभी भी,
नए-नए आकारों में क्षण-क्षण यह समा रहा है;
स्यात् कभी मिल ही जाए, क्या पता, अनंत गगन में।
यह परिवर्तन ही विनाश है? तो फिर नश्वरता से,
भिन्न मुक्ति कुछ नहीं। किंतु, परिवर्तन नाश नहीं है।
परिवर्तन-प्रक्रिया प्रकृति की सहज प्राण-धारा है।

मुक्त वही, जो सहज भावना से इसमें बहते हैं,
विधि-निषेध से परे, छूटकर सभी कामनाओं से,
किसी ध्येय के लिए नहीं केवल बहते रहने को;
क्योंकि और कुछ भी करना सम्भव या योग्य नहीं है।

जानें, क्यों तैराक चतुर तब भी प्रशांत धारा में
चला-चलाकर हाथ-पाँव विक्षोभ व्यर्थ भरते हैं!
कौन सिद्धि है जो मिलती संतरण-दक्ष साधक को,
और नहीं मिलती अकाम जल में बहने वाले को?
जिसे खोजता फिरता है तू, वह अरूप, अनिकेतन,
किसी व्योम पर कहीं देह धर बैठा नहीं मिलेगा।
वह तो स्वयं रहा बह अपनी ही लीला-धारा में,
कर्दम कहीं, कहीं पंकज बन, कहीं स्वच्छ जल बनकर।

उसे देखा हो तो आंखॉ को पहले समझा दे,
श्वेत-श्याम एक ही रंग की युगपत संज्ञाएँ हैं,
और उसे छूना हो तो कह दे अपने हाथों से,
भेद उठा दें शूल-फूल का, कमल और कर्दम का।
अर्थ खोजते हो जीवन का? लड़ी कार्य-कारण की,
बहुत दूर तक बिछी हुई है पीछे अन्धियाले में,
चलो जहाँ तक भी, अतीत-गह्वर में, चरण-चरण पर,
मात्र प्रतीक्षा-निरत प्रश्न मग में मिलते जाएंगे।

और, अंत में अनाख्येय जो आदि भित्ति आती है,
परे झांकने को भी उसमें कहीं गवाक्ष नहीं है।
वर्तमान की कुछ मत पूछो,एक बूंद वह जल है,
अभी हाथ आया, तुरंत फिर अभी बिखर जायेगा।

पढ़ा जाए क्या अर्थ काल के इस उड़ते अक्षर का?
और भविष्यत के वन में ऐसा घनघोर तिमिर है,
नहीं सूझता पंथ बुद्धि के दीपों की आभा में
हार मान प्रज्ञा अपना सिर थाम बैठ जाती है।

वृथा यत्न इस अतल शून्य का तलस्पर्श करने का
वृथा यत्न पढ़ने का कोई भेद उत्स पर जाकर।
कहीं न कोई द्वार न तो वातायन कहीं खुले हैं,
हम हैं जहाँ, वहाँ जाने की कोई राह नहीं है।
किंतु, अर्थ को छोड़ जभी शब्दों की ओर मुड़ोगे,
अकस्मात, यह शून्य ठोस रूपों से भर जाएगा।

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