ई-पुस्तकें >> उर्वशी उर्वशीरामधारी सिंह दिनकर
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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा
भाग - 4
उर्वशी
अतिक्रमण सुख की तरंग, तन के उद्वेलित मधु का?
तुम तो जगा रहे मुझ में फिर उसी शीत महिमा को
जिसे टांग कर पारिजात-द्रुम की अकम्प टहनी में
मैं चपलोष्ण मानवी-सी भू पर जीने आई हूँ।
पर, मैं बाधक नहीं, जहाँ भी रहो, भूमि या नभ में,
वक्षस्थल पर इसी भांति मेरा कपोल रहने दो,
कसे रहो, बस इसी भांति, उर-पीड़क आलिंगन में,
और जलाते रहो अधर-पुट को कठोर चुम्बन से।
किंतु आह! यों नहीं तनिक तो शिथिल करो बाहों को;
निष्पेषित मत करो, यदपि, इस मधु-निष्पेषण में भी
मर्मांतक है शांति और आनन्द एक दारुण है।
तुम पर्वत मैं लता, तुम्हारी बलवत्तर बाँहों में
विह्वल, रस-आकुलित, क्षाम मैं मूर्छित हो जाऊँगी।
ना, यों नहीं; अरे, देखो तो उधर, बडा कौतुक है,
नगपति के उत्तुंग, समुज्ज्वल, हिम-भूषित शृंगों पर
कौन नई उज्जवलता की तूली सी फेर रहा है?
कुछ वृक्षों के हरित-मौलि पर, कुछ पत्तों से छनकर,
छाँह देख नीचे मृगांक की किरणें लेट गई हैं,
ओढ़े धूप-छाँह की जाली, अपनी ही निर्मिति की।
लगता है, निष्कम्प, मौन सारे वन-वृक्ष खड़े हों
पीताम्बर, उष्णीष बान्धकर छायातप-कुट्टिम पर।
दमक रही कर्पूर धूलि दिग्बन्धुओं के आनन पर;
रजनी के अंगो पर कोई चन्दन लेप रहा है।
यह अधित्यका दिन में तो कुछ इतनी बडी नहीं थी?
अब क्या हुआ कि यह अनंत सागर-समान लगती है?
कम कर दी दूरता कौमुदी ने भू और गगन की?
उठी हुई-सी मही, व्योम कुछ झुका हुआ लगता है।
रसप्रसन्न मधुकांति चतुर्दिक ऐसे उमड़ रही है,
मानो, निखिल सृष्टि के प्राणों में कम्पन भरने को,
एक साथ ही सभी बाण मनसिज ने छोड़ दिये हों।
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