ई-पुस्तकें >> उर्वशी उर्वशीरामधारी सिंह दिनकर
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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा
पुरुरवा
हाँ समस्त आकाश दीखता भरा शांत सुषमा से,
चमक रहा चन्द्रमा शुद्ध, शीतल, निष्पाप हृदय-सा,
विस्मृतियाँ निस्तल समाधि से बाहर निकल रही हैं,
लगता है, चन्द्रिका आज सपने में घूम रही है।
और गगन पर जो असंख्य आग्नेय जीव बैठे हैं,
लगते हैं धुन्धले अरण्य में हीरों के कूपों-से।
चन्द्रभूति-निर्मित हिमकण ये चमक रहे शाद्वल में?
या नभ के रन्ध्रॉ में सित पारावत बैठ गये हैं?
कल्पद्रुम के कुसुम, या कि ये परियों की आंखें हैं?
उर्वशी
कल्पद्रुम के कुसुम नहीं ये, न तो नयन परियों के,
ये जो दीख रहे उजले-उजले से नील गगन में,
दीप्तिमान, सित, शुभ्र, श्मश्रुमय देवों के आनन हैं।
शमित वह्नि ये शीत-प्राण पीते सौन्दर्य नयन से,
घ्राण मात्र लेते, न कुसुम का अंग कभी छूते हैं
पर, देखो तो, दिखा-दिखा दर्पण शशांक यह कैसे
सब के मन का भेद गुप्तचर-सा पढ़ता जाता है,
(भेद शैल-द्रुम का, निकुंज में छिपी निर्झरी का भी।)
और सभी कैसे प्रसन्न अभ्यंतर खोल रहे हैं,
मानो चन्द्र-रूप धर प्राणों का पाहुन आया हो।
ऐसी क्या मोहिनी चन्द्रमा के कर में होती है?
पुरुरवा
ऋक्षकल्प झिलमिल भावों का, चन्द्रलिंग स्वप्नों का
दिवस शत्रु, एकांत यामिनी धात्री है, माता है।
आती जब शर्वरी, पोंछती नहीं विश्व के सिर से
केवल तपन-चिन्ह, केवल लांछन सफेद किरणों के;
श्रमहारी, निर्मोघ, शांतिमय अपने तिमिरांचल में
कोलाहल, कर्कश निनाद को भी समेट लेती है
तिमिर शांति का व्यूह, तिमिर अंतर्मन की आभा है,
दिन में अंतरस्थ भावों के बीज बिखर जाते हैं;
पर हम चुनकर उन्हें समंजस करते पुन: निशा में
जब आता है अन्धकार, धरणी अशब्द होती है।
जो सपने दिन के प्रकाश में धूमिल हो जाते हैं
या अदृश्य अपने सोदर, संकोचशील उडुओं-से,
वही रात आने पर कैसे हमें घेर लेते हैं,
ज्योतिर्मय, जाज्वल्यमान, आलोक-शिखाएँ बनकर!
निशा योग-जागृति का क्षण है उदग्र प्रणय की
ऐकायनिक समाधि; काल के इसी गरुत के नीचे
भूमा के रस-पथिक समय का अतिक्रमण करते हैं
योगी बँधे अपार योग में, प्रणयी आलिंगन में।
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