ई-पुस्तकें >> उर्वशी उर्वशीरामधारी सिंह दिनकर
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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा
मन का अतिक्रमण, यानी मांसल आवरण हटाकर,
आंखों से देखना वस्तुओं के वास्तविक हृदय को।
और श्रवण करना कानों से आहट उन भावों की,
जो खुल कर बोलते नहीं, गोपन इंगित करते हैं।
जो कुछ भी हम जान सके हैं यहाँ देह या मन से,
वह स्थिर नहीं, सभी अटकल-अनुमान-सदृश लगता है।
अत:, किसी भी भांति आप अपनी सीमा लंघित कर,
अंतरस्थ उस दूर देश में हम सबको जाना है,
जहाँ न उठते प्रश्न, न कोई शंका ही जगती है।
तुम अशेष सुन्दर हो, पर, हो कोर मात्र ही केवल,
उस विराट छवि की, जो, घन के नीचे अभी दबी है।
अतिक्रमण इसलिये कि इन जलदा का पटल हटाकर
देख सकूँ, मधुकांतिमान सारा सौन्दर्य तुम्हारा।
मध्यांतर में देह और आत्मा के जो खाई है,
अनुल्लन्घ्य वह नहीं, प्रभा के पुल से संयोजित है,
अतिक्रमण इसलिये, पार कर इस सुवर्ण सेतुक को,
उद्भासित हो सकें भूतरोत्तर जग की आभा से,
सुनें अशब्दित वे विचार जिनमें सब ज्ञान भरा है।
और चुनें गोपन भेदॉ को, जो समाधि-कानन में,
कामद्रुम से, कुसुम सदृश, नीरव अशब्द झरते हैं।
यह अति-क्रांति वियोग नहीं अलिंगित नर-नारी का,
देह-धर्म से परे अंतरात्मा तक उठ जाना है।
यह प्रदान उस आत्म-रूप का जिसे विमुग्ध नयन से,
प्रक्षेपित करता है प्रेमी पुरुष प्रिया के मन में।
मौन ग्रहण यह उन अपार शोभाशाली बिम्बों का,
जो नारी से निकल पुरुष के मन में समा रहे हैं।
यह अति-क्रांति वियोग नहीं, शोणित के तप्त ज्वलन का
परिवर्तन है स्निग्ध, शांत दीपक की सौम्य शिखा में।
निन्दा नहीं, प्रशस्ति प्रेम की, छलना नहीं,समर्पण
त्याग नहीं, संचय; उपत्यकाओं के कुसुम-द्रुमों को।
ले जाना है यह समूल नगपति के तुंग शिखर पर,
वहाँ जहाँ कैलाश-प्रांत में शिव प्रत्येक पुरुष है
और शक्तिदायिनी शिवा प्रत्येक प्रणयिनी नारी।
पर, कैसा दुसाध्य पंथ, कितना उड्डयन कठिन है,
पहले तो मधु-सिक्त भ्रमर के पंख नहीं खुलते हैं।
और खुले भी तो उडान आधी ही रह जाती है;
नीचे उसे खींच लेता है आकर्षण मधुवन का।
देह प्रेम की जन्म-भूमि है इस शैशव स्थली की,
ममता रखती रोक उसे अति दूर देश जाने से,
बाधक है ये प्रेम आप ही अपनी उर्ध्व प्रगति का।
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