ई-पुस्तकें >> उर्वशी उर्वशीरामधारी सिंह दिनकर
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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा
नर समेट रखता बाहों में स्थूल देह नारी की,
शोभा की आभा-तरंग से कवि क्रीड़ा करता है।
तन्मय हो सुनता मनुष्य जब स्वर कोकिल-कंठी का,
कवि हो रहता लीन रूप की उज्ज्वल झंकारों में।
नर चाहता सदेह खींच रख लेना जिसे हृदय में,
कवि नारी के उस स्वरूप का अतिक्रमण करता है।
कवि, प्रेमी एक ही तत्व हैं, तन की सुन्दरता से
दोनों मुग्ध, देह से दोनों बहुत दूर जाते हैं,
उस अनंत में जो अमूर्त धागों से बान्ध रहा है
सभी दृश्य सुषमाओं को अविगत, अदृश्य सत्ता से।
देह प्रेम की जन्म-भूमि है, पर, उसके विचरण की,
सारी लीला-भूमि नहीं सीमित है रुधिर-त्वचा तक।
यह सीमा प्रसरित है मन के गहन, गुह्य लोकों में
जहाँ रूप की लिपि अरूप की छवि आंका करती है
और पुरुष प्रत्यक्ष विभासित नारी-मुखमन्डल में
किसी दिव्य, अव्यक्त कमल को नमस्कार करता है
जगता प्रेम प्रथम लोचन में, तब तरंग-निभ मन में,
प्रथम दीखती प्रिया एकदेही, फिर व्याप्त भुवन में,
पहले प्रेम स्पर्श होता है, तदनंतर चिंतन भी,
प्रणय प्रथम मिट्टी कठोर है, तब वायव्य गगन भी।
मुझमें जिस रहस्य चिंतक को तुमने जगा दिया है,
उडा चहता है वह भावुक निरभ्र अम्बर में।
घेर रहा जो तुम्हें चतुर्दिक अपनी स्निग्ध विभा से,
समा रहीं जिसमें अलक्ष्य आभा-उर्मियाँ तुम्हारी।
वह अम्बर जिसके जीवन का पावस उतर चुका है,
चमक रही है धुली हुई जिसमें नीलिमा शरद की।
वह निरभ्र आकाश, जहाँ, सत्य ही, चन्द्रमा सी तुम,
तैर रही हो अपने ही शीतल प्रकाश-प्लावन से,
किरण रूप में मुझे समाहित किये हुए अपने में।
वह नभ, जहाँ गूढ छवि पर से अम्बर खिसक गया है,
परम कांति की आभा में सब विस्मित, चकित खडे हैं,
अधर भूल कर तृषा और शोणित निज तीव्र क्षुधा को।
वह निरभ्र आकाश, जहाँ की निर्विकल्प सुषमा में,
न तो पुरुष मैं पुरुष, न तुम नारी केवल नारी हो;
दोनों हैं प्रतिमान किसी एक ही मूलसत्ता के,
देह-बुद्धि से परे, नहीं जो नर अथवा नारी है।
ऊपर जो द्युतिमान, मनोमय जीवन झलक रहा है,
उसे प्राप्त हम कर सकते हैं तन मनके अतिक्रमण से।
तन का अतिक्रमण, यानी इन दो सुरम्य नयनों के,
वातायन से झांक देखना उस अदृश्य जगती को,
जहाँ मृत्ति की सीमा सूनेपन में बिला रही है।
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