ई-पुस्तकें >> उर्वशी उर्वशीरामधारी सिंह दिनकर
|
7 पाठकों को प्रिय 205 पाठक हैं |
राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा
एक ही आशा, मरुस्थल की तपन में
ओ सजल कादम्बिनी! सर पर तुम्हारी छांह है।
एक ही सुख है, उरस्थल से लगा हूँ,
ग्रीव के नीचे तुम्हारी बांह है।
इन प्रफुल्लित प्राण-पुष्पों में मुझे शाश्वत शरण दो,
गंध के इस लोक से बाहर न जाना चाहता हूँ।
मैं तुम्हारे रक्त के कान में समाकर
प्रार्थना के गीत गाना चाहता हूँ।
उर्वशी
स्वर्णदी, सत्य ही, वह जिसमें उर्मियाँ नहीं, खर ताप नहीं,
देवता, शेष जिसके मन में कामना, द्वन्द्व, परिताप नहीं।
पर, ओ, जीवन के चटुल वेग! तू होता क्यों इतना कातर ?
तू पुरुष तभी तक, गरज रहा जब तक भीतर यह वैश्वानर।
जब तक यह पावक शेष, तभी तक सखा-मित्र त्रिभुवन तेरा,
चलता है भूतल छोड़ बादलों के ऊपर स्यन्दन तेरा।
जब तक यह पावक शेष, तभी तक सिन्धु समादर करता है,
अपना मस्तक मणि-रत्न-कोष चरणों पर लाकर धरता है।
पथ नहीं रोकते सिंह, राह देती है सघन अरण्यानी,
तब तक ही शीष झुकाते हैं सामने प्रांशु पर्वत मानी।
सुरपति तब तक ही सावधान रहते बढकर अपनाने को,
अप्सरा स्वर्ग से आती है अधरों का चुम्बन पाने को।
जब तक यह पावक शेष, तभी तक भाव द्वन्द्व के जगते हैं,
बारी-बारी से मही, स्वर्ग दोनों ही सुन्दर लगते हैं।
मरघट की आती याद तभी तक फुल्ल प्रसूनों के वन में,
सूने श्मशान को देख चमेली-जूही फूलती हैं मन में।
शय्या की याद तभी तक देवालय में तुझे सताती है,
औ शयन कक्ष में मूर्त्ति देवता की मन में फिर जाती है।
किल्विष के मल का लेश नहीं, यह शिखा शुभ्र पावक केवल,
जो किए जा रहा तुझे दग्ध कर क्षण-क्षण और अधिक उज्ज्वल।
जितना ही यह खर अनल-ज्वार शोणित में उमह उबलता है,
उतना ही यौवन-अगरु दीप्त कुछ और धधक कर जलता है।
|