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			 ई-पुस्तकें >> उर्वशी उर्वशीरामधारी सिंह दिनकर
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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा
 मैं इसी अगरु की ताप-तप्त, मधुमयी गन्ध पीने आई,
 निर्जीव स्वर्ग को छोड़ भूमि की ज्वाला में जीने आई।
 बुझ जाए मृत्ति का अनल, स्वर्गपुर का तू इतना ध्यान न कर
 जो तुझे दीप्ति से सजती है, उस ज्वाला का अपमान न कर।
 
 तू नहीं जानता इसे, वस्तु जो इस ज्वाला में खिलती है,
 सुर क्या सुरेश के आलिंगन में भी न कभी वह मिलती है।
 यह विकल, व्यग्र, विह्वल प्रहर्ष सुर की सुन्दरी कहां पाए ?
 प्रज्वलित रक्त का मधुर स्पर्श नभ की अप्सरी कहां पाए ?
 
 वे रक्तहीन,शुची, सौम्य पुरुष अम्बरपुर के शीतल, सुन्दर,
 दें उन्हें किंतु क्या दान स्वप्न जिनके लोहित, संतप्त, प्रखर?
 यह तो नर ही है, एक साथ जो शीतल औए ज्वलित भी है,
 मन्दिर में साधक-व्रती, पुष्प-वन में कन्दर्प ललित भी है।
 
 योगी अनंत, चिन्मय, अरुप को रूपायित करने वाला,
 भोगी ज्वलंत, रमणी-मुख पर चुम्बन अधीर धरने वाला।
 मन की असीमता में, निबद्ध नक्षत्र, पिन्ड, ग्रह, दिशाकाश,
 तन में रसस्विनी की धारा, मिट्टी की मृदु, सोंधी सुवास।
 
 मानव मानव ही नहीं, अमृत-नन्दन यह लेख अमर भी है,
 वह एक साथ जल-अनल, मृत्ति-महदम्बर, क्षर-अक्षर भी है।
 तू मनुज नहीं, देवता, कांति से मुझे मंत्र-मोहित कर ले,
 फिर मनुज-रूप धर उठा गाढ़ अपने आलिंगन में भर ले।
 
 मैं दो विटपों के बीच मग्न नन्हीं लतिका-सी सो जाऊँ,
 छोटी तरंग-सी टूट उरस्थल के महीध्र पर खो जाऊँ।
 आ मेरे प्यारे तृषित! श्रांत ! अंत:सर में मज्जित करके,
 हर लूंगी मन की तपन, चान्दनी, फूलों से सज्जित करके।
 
 रसमयी मेघमाला बनकर मैं तुझे घेर छा जाऊँगी,
 फूलों की छांह-तले अपने अधरों की सुधा पिलाऊँगी।
 
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