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			 ई-पुस्तकें >> उर्वशी उर्वशीरामधारी सिंह दिनकर
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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा
 यह शिला-सा वक्ष, ये चट्टान-सी मेरी भुजाएं,
 सूर्य के आलोक से दीपित, समुन्नत भाल,
 मेरे प्राण का सागर अगम, उत्ताल, उच्छल है।
 सामने टिकते नहीं वनराज, पर्वत डोलते हैं,
 कांपता है कुण्डली मारे समय का व्याल,
 मेरी बांह में मारुत, गरुड़, गजराज का बल है।
 मर्त्य मानव की विजय का तूर्य हूँ मैं,
 उर्वशी! अपने समय का सूर्य हूँ मैं।
 अंध तम के भाल पर पावक जलाता हूँ,
 बादलों के सीस पर स्यंदन चलाता हूँ।
 पर, न जाने, बात क्या है !
 इन्द्र का आयुध पुरुष जो झेल सकता है,
 सिंह से बाँहें मिलाकर खेल सकता है,
 फूल के आगे वही असहाय हो जाता ,
 शक्ति के रहते हुए निरुपाय हो जाता।
 
 विद्ध हो जाता सहज बंकिम नयन के बाण से
 जीत लेती रूपसी नारी उसे मुस्कान से।
  
 मैं तुम्हारे बाण का बींधा हुआ खग,
 वक्ष पर धर शीश मरना चाहता हूँ।
 मैं तुम्हारे हाथ का लीला कमल हूँ,
 प्राण के सर में उतरना चाहता हूँ।
 कौन कहता है,
 तुम्हें मैं छोड़कर आकाश में विचरण करूंगा ?
  
 बाहुओं के इस वलय में गात्र की बंदी नहीं है,
 वक्ष के इस तल्प पर सोती न केवल देह ,
 मेरे व्यग्र, व्याकुल प्राण भी विश्राम पाते हैं।
  
 मर्त्य नर को देवता कहना मृषा है,
 देवता शीतल, मनुज अंगार है।
  
 देवताओं की नदी में ताप की लहरें न उठतीं,
 किन्तु, नर के रक्त में ज्वालामुखी हुंकारता है,
 घूर्नियाँ चिंगारियों की नाचती हैं,
 नाचते उड़कर दहन के खंड पत्तों-से हवा में,
 मानवों का मन गले-पिघले अनल की धार है।
  
 चाहिए देवत्व,
 पर, इस आग को धर दूँ कहाँ पर?
 कामनाओं को विसर्जित व्योम में कर दूँ कहाँ पर?
 वह्नि का बेचैन यह रसकोष, बोलो कौन लेगा ?
 आग के बदले मुझे संतोष, बोलो कौन देगा?
 फिर दिशाए मौन, फिर उत्तर नहीं है।
 प्राण की चिर-संगिनी यह वह्नि,
 इसको साथ लेकर,
 भूमि से आकाश तक चलते रहो।
 मर्त्य नर का भाग्य !
 जब तक प्रेम की धारा न मिलती,
 आप अपनी आग में जलते रहो।
 			
		  			
						
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