ई-पुस्तकें >> उर्वशी उर्वशीरामधारी सिंह दिनकर
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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा
भाग - 2
पुरुरवा
फिर क्षुधित कोई अतिथि आवाज देता,
फिर अधर-पुट खोजने लगते अधर को,
कामना छूकर त्वचा को फिर जगाती है,
रेंगने लगते सहस्रों सांप सोने के रुधिर में,
चेतना रस की लहर में डूब जाती है।
और तब सहसा
न जाने, ध्यान खो जाता कहाँ पर।
सत्य ही, रहता नहीं यह ज्ञान,
तुम कविता, कुसुम, या कामिनी हो,
आरती की ज्योति को भुज में समेटे,
मैं तुम्हारी ओर अपलक देखता एकांत मन से,
रूप के उद्गम अगम का भेद गुनता हूँ।
सांस में सौरभ, तुम्हारे वर्ण में गायन भरा है,
सींचता हूँ प्राण को इस गंध की भीनी लहर से,
और अंगों की विभा की वीचियों से एक होकर,
मैं तुम्हारे रंग का संगीत सुनता हूँ।
और फिर यह सोचने लगता, कहाँ, किस लोक में हूँ ?
कौन है यह वन सघन हरियालियों का,
झूमते फूलों, लचकती डालियों को?
कौन है यह देश जिसकी स्वामिनी मुझको निरंतर,
वारुणी की धार से नहला रही है ?
कौन है यह जग, समेटे अंक में ज्वालामुखी को,
चांदनी चुमकार कर बहला रही है ?
कौमुदी के इस सुनहरे जाल का बल तोलता हूँ,
एक पल उड्डीन होने के लिए पर खोलता हूँ।
पर, प्रभंजन मत्त है इस भांति रस-आमोद में,
उड़ न सकता, लौट गिरता है कुसुम की गोद में।
टूटता तोड़े नहीं यह किसलयों का दाम,
फूलों की लड़ी जो बांध गई, खुलती नहीं है।
कामनाओं के झकोरे रोकते हैं राह मेरी,
खींच लेती है तृषा पीछे पकड़ कर बांह मेरी।
सिन्धु-सा उद्दाम, अपरम्पार मेरा बल कहाँ है?
गूँजता जिस शक्ति का सर्वत्र जयजयकार,
उस अटल संकल्प का संबल कहाँ है?
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