ई-पुस्तकें >> उर्वशी उर्वशीरामधारी सिंह दिनकर
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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा
गीत आता है मही से?
या कि मेरे ही रुधिर का राग,
यह उठता गगन में ?
बुलबुलों-सी फूटने लगतीं मधुर स्मृतियाँ हृदय में;
याद आता है मदिर उल्लास में फूला हुआ वन,
याद आते हैं तरंगित अंग के रोमांच, कम्पन;
स्वर्णवर्णा वल्लरी में फूल से खिलते हुए मुख,
याद आता है निशा के ज्वार में उन्माद का सुख।
कामनाएं प्राण को हिलकोरती हैं।
चुम्बनों के चिह्न जग पड़ते त्वचा में।
फिर किसी का स्पर्श पाने को तृषा चीत्कार करती।
मैं न रुक पाता कहीं,
फिर लौट आता हूँ पिपासित,
शून्य से साकार सुषमा के भुवन में,
युद्ध से भागे हुए उस वेदना-विह्वल युवक-सा,
जो कहीं रुकता नहीं,
बेचैन जा गिरता अकुंठित,
तीर-सा सीधे प्रिया की गोद में,
चूमता हूँ दूब को, जल को, प्रसूनों, पल्लवों को,
वल्लरी को बांह भर उर से लगाता हूँ;
बालकों-सा मैं तुम्हारे वक्ष में मुंह को छिपाकर,
नींद की निस्तब्धता में डूब जाता हूँ।
नींद जल का स्रोत है, छाया सघन है,
नींद श्यामल मेघ है, शीतल पवन है।
किन्तु, जगकर देखता हूँ,
कामनाएं वर्तिका सी बल रही हैं,
जिस तरह पहले पिपासा से विकल थीं,
प्यास से आकुल अभी भी जल रही हैं।
रात भर, मानो, उन्हें दीपक सदृश जलना पडा हो,
नींद में, मानो, किसी मरुदेश में चलना पडा हो।
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