ई-पुस्तकें >> उर्वशी उर्वशीरामधारी सिंह दिनकर
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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा
रक्त की उत्तम लहरों की परिधि के पार
कोई सत्य हो तो,
चाहता हूँ, भेद उसका जान लूँ।
पथ हो सौन्दर्य की आराधना का व्योम में यदि
शून्य की उस रेख को पहचान लूँ।
पर,जहां तक भी उडूँ, इस प्रश्न का उत्तर नहीं है,
मृत्ति महदाकाश में ठहरे कहाँ पर? शून्य है सब,
और नीचे भी नहीं संतोष,
मिट्टी के ह्रदय से
दूर होता ही कभी अम्बर नहीं है।
इस व्यथा को झेलता
आकाश की निस्सीमता में
घूमता फिरता विकल, विभ्रांत
पर, कुछ भी न पाता।
प्रश्न को कढ़ता,
गगन की शून्यता में गूंजकर सब ओर,
मेरे ही श्रवण में लौट आता।
और इतने में मही का गान फिर पड़ता सुनाई,
"हम वही जग हैं, जहां पर फूल खिलते हैं।
दूब है शय्या हमारे देवता की,
पुष्प के वे कुञ्ज मंदिर हैं,
जहां शीतल, हरित, एकांत मंडप में प्रकृति के
कंटकित युवती-युवक स्वच्छंद मिलते हैं।"
"इन कपोलों की ललाई देखते हो?
और अधरों की हँसी यह कुंद -सी, जूही-क़ली-सी ?
गौर चम्पक-यष्टि -सी यह देह श्लथ पुष्पभरण से,
स्वर्ण की प्रतिमा कला के स्वप्न-सांचे में ढली-सी ?"
यह तुम्हारी कल्पना है, प्यार कर लो।
रूपसी नारी प्रकृति का चित्र है सबसे मनोहर।
ओ गगनचारी! यहाँ मधुमास छाया है।
भूमि पर उतारो,
कमल, कर्पूर, कुंकुम से, कुटज से
इस अतुल सौन्दर्य का श्रृंगार कर लो।"
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