ई-पुस्तकें >> उर्वशी उर्वशीरामधारी सिंह दिनकर
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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा
उर्वशी
सो तो मैं आ गयी, किन्तु, यह वैसा ही आना है,
अयस्कांत ले खींच अयस को जैसे निज बाहों में।
पर, इस आने में किंचित भी स्वाद कहाँ उस सुख का,
जो सुख मिलता उन मनस्विनी वामलोचनाओं को,
जिन्हें प्रेम से उद्वेलित विक्रमा पुरुष बलशाली,
रण से लाते जीत या कि बल-सहित हरण करते हैं।
नदियाँ आती स्वयं, ध्यान सागर, पर, कब देता है?
बेला का सौभाग्य जिसे आलिंगन में भरने को,
चिर-अतृप्त, उद्भ्रांत महोदधि लहराता रहता है।
वही धनी जो मान्मयी प्रणयी के बाहु-वलय में
खिंची नहीं,विक्रम-तरंग पर चढी हुई आती है।
हरण किया क्यों नहीं, मांग लाने में यदि अपयश था?
पुरुरवा
अयशमूल दोनों विकर्म हैं, हरण हो कि भिक्षाटन,
और हरण करता मैं किसका ? उस सौन्दर्य सुधा का
जो देवों की शान्ति, इन्द्र के दृग की शीतलता थी?
नहीं बढाया कभी हाथ पर के स्वाधीन मुकुट पर,
न तो किया संघर्ष कभी पर की वसुधा हरने को।
तब भी प्रतिष्ठानपुर वंदित है सहस्र मुकुटों से,
और राज्य-सीमा दिन-दिन विस्तृत होती जाती है।
इसी भांति, प्रत्येक सुयश, सुख, विजय, सिद्धि जीवन की
अनायास, स्वयमेव प्राप्त मुझको होती आई है।
यह सब उनकी कृपा, सृष्टि जिनकी निगूढ़ रचना है।
झुके हुए हम धनुष मात्र हैं, तनी हुई ज्या पर से
किसी और की इच्छाओं के बाण चला करते हैं।
मैं मनुष्य, कामना-वायु मेरे भीतर बहती है,
कभी मंद गति से प्राणों में सिहरन-पुलक जगा कर;
कभी डालियों को मरोड़ झंझा की दारुण गति से,
मन का दीपक बुझा, बनाकर तिमिराच्छन्न हृदय को।
किन्तु पुरुष क्या कभी मानता है तम के शासन को?
फिर होता संघर्ष तिमिर में दीपक फिर जलते हैं।
रंगों की आकुल तरंग जब हमको कस लेती है,
हम केवल डूबते नहीं ऊपर भी उतराते हैं,
पुण्डरीक के सदृश मृत्ति-जल ही जिसका जीवन है,
पर, तब भी रहता अलिप्त जो सलिल और कर्दम से।
नहीं इतर इच्छाओं तक ही अनासक्ति सीमित है,
उसका किंचित स्पर्श प्रणय को भी पवित्र करता है।
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