ई-पुस्तकें >> उर्वशी उर्वशीरामधारी सिंह दिनकर
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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा
पुरुरवा
चिर कृतज्ञ हूँ इस कृपालुता के हित, किन्तु, मिलन का,
इसे छोड़कर और दूसरा कौन पथ संभव था ?
उस दिन दुष्ट दनुज के कर से तुम्हें विमोचित करके,
और छोड़कर तुम्हें तुम्हारी सखियों के हाथों में।
लौटा जब मैं राजभवन को, लगा, देह ही केवल,
रथ में बैठी हुई किसी विध गृह तक पहुँच गयी है;
छूट गये हैं प्राण उन्हीं उज्जवल मेघों के वन में,
जहां मिली थी तुम क्षीरोदधि में लालिमा-लहर-सी।
कई बार चाहा, सुरपति से जाकर स्वयं कहूँ मैं,
अब उर्वशी बिना यह जीवन बरबाद हुआ जाता है,
बड़ी कृपा हो उसे आप यदि भू-तल पर आने दें
पर मन ने टोका, "क्षत्रिय भी भीख मांगते हैं क्या"?
और प्रेम क्या कभी प्राप्त होता है भिक्षाटन से ?
मिल भी गयी उर्वशी यदि तुमको इन्द्र की कृपा से,
उसका ह्रदय-कपाट कौन तेरे निमित्त खोलेगा ?
बाहर सांकल नहीं जिसे तू खोल हृदय पा जाए,
इस मंदिर का द्वार सदा अन्तःपुर से खुलता है।
"और कभी ये भी सोचा है, जिस सुगंध से छककर
विकल वायु बह रही मत्त होकर त्रिकाल-त्रिभुवन की,
उस दिगंत-व्यापिनी गंध की अव्यय, अमर शिखा को
मर्त्य प्राण की किस निकुंज-वीथी में बाँध धरेगा?"
इसीलिए, असहाय तड़पता बैठा रहा महल में,
लेकर यह विश्वास, प्रीति यदि मेरी मृषा नहीं है,
मेरे मन का दाह व्योम के नीचे नहीं रुकेगा,
जलद-पुंज को भेद, पहुँचकर पारिजात के वन में,
वह अवश्य ही कर देगा संतप्त तुम्हारे मन को।
और प्रीति जागने पर तुम बैकुंठ-लोक को तजकर,
किसी रात, निश्चय, भूतल पर स्वयं चली आओगी।
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