ई-पुस्तकें >> उर्वशी उर्वशीरामधारी सिंह दिनकर
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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा
भाग - 1
पुरुरवा
जब से हम-तुम मिले, न जाने, कितने अभिसारों में,
रजनी कर श्रृंगार सितासित नभ में घूम चुकी है;
जाने, कितनी बार चन्द्रमा को, बारी-बारी से,
अमा चुरा ले गयी और फिर ज्योत्सना ले आई है।
जब से हम-तुम मिले, रूप के अगम, फूल कानन में,
अनिमिष मेरी दृष्टि किसी विस्मय में ड़ूब गयी है,
अर्थ नहीं सूझता मुझे अपनी ही विकल गिरा का;
शब्दों से बनाती हैं जो मूर्त्तियां, तुम्हारे दृग से।
उठने वाले क्षीर-ज्वार में गल कर खो जाती हैं।
खडा सिहरता रहता मैं आनंद-विकल उस तरु-सा
जिसकी दालों पर प्रसन्न गिलहरियाँ किलक रही हों,
या पत्तों में छिपी हुई कोयल कूजन करती हो।
उर्वशी
जब से हम-तुम मिले, न जानें, क्या हो गया समय को,
लय होता जा रहा मरुदगति से अतीत-गह्वर में।
किन्तु, हाय, जब तुम्हें देख मैं सुरपुर को लौटी थी,
यही काल अजगर-समान प्राणों पर बैठ गया था।
उदित सूर्य नभ से जाने का नाम नहीं लेता था,
कल्प बिताये बिना न हटाती थीं वे काल-निशाएँ
कामद्रुम-तल पड़ी तड़पती रही तप्त फूलों पर;
पर, तुम आए नहीं कभी छिप कर भी सुधि लेने को।
निष्ठुर बन निश्चिन्त भोगते बैठे रहे महल में,
सुख प्रताप का, यश का, जय का, कलियों का, फूलों का।
मिले, अंत में, तब, जब ललना की मर्याद गंवाकर,
स्वर्ग-लोक को छोड़ भूमि पर स्वयं चली मैं आई।
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