ई-पुस्तकें >> उर्वशी उर्वशीरामधारी सिंह दिनकर
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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा
उर्वशी
यह मैं क्या सुन रही ? देवताओं के जग से चल कर,
फिर मैं क्या फंस गई किसी सुर के ही बाहु-वलय में ?
अन्धकार की मैं प्रतिमा हूँ? जब तक हृदय तुम्हारा
तिमिर-ग्रस्त है, तब तक ही मैं उस पर राज करुँगी?
और जलाओगे जिस दिन बुझे हुए दीपक को,
मुझे त्याग दोगे प्रभात में रजनी की माला सी?
वह विद्युन्मय स्पर्श तिमिर है, पाकर जिसे त्वचा की
नींद टूट जाती, रोमों में दीपक जल उठते हैं ?
वह आलिंगन अन्धकार है, जिसमें बंध जाने पर,
हम प्रकाश के महासिंधु में उतराने लगते हैं?
और कहोगे तिमिर-शूल उस चुम्बन को भी जिससे,
जड़ता की ग्रंथियां निखिल तन-मन की खुल जाती हैं?
यह भी कैसी द्विधा? देवता गंधों के घेरे से,
निकल नहीं मधुपूर्ण पुष्प का चुम्बन ले सकते हैं।
और देह धर्मी नर फूलों के शरीर को तज कर,
ललचाता है दूर गंध के नभ में उड़ जाने को।
अनासक्ति तुम कहो, किन्तु, उस द्विधा-ग्रस्त मानव की
झांकी तुम में देख मुझे, जाने क्यों, भय लगता है।
तन से मुझको कसे हुए अपने दृढ आलिंगन में,
मन से, किन्तु, विषण दूर तुम कहाँ चले जाते हो?
बरसा कर पियूष प्रेम का, आँखों से आँखों में
मुझे देखते हुए कहाँ तुम जाकर खो जाते हो?
कभी-कभी लगता है, तुमसे जो कुछ भी कहती हूँ
आशय उसका नहीं, शब्द केवल मेरे सुनते हो।
क्षण में प्रेम अगाध, सिन्धु हो जैसे आलोडन में,
और पुनः वह शान्ति, नहीं जब पत्ते भी हिलते हैं,
अभी दृष्टि युग-युग के परिचय से उत्फुल्ल हरी सी,
और अभी यह भाव, गोद में पडी हुई मैं जैसे,
युवती नारी नहीं, प्रार्थना की कोई कविता हूँ।
शमित-वह्नि सुर की शीतलता तो अज्ञात नहीं है;
पर, ज्वलंत नर पर किसका यह अंकुश लटक रहा है
छककर देता उसे नहीं पीने जो रस जीवन का,
न तो देवता-सदृश गंध-नभ में जीने देता है।
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