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उर्वशी
उर्वशी
प्रकाशक :
भारतीय साहित्य संग्रह |
प्रकाशित वर्ष : 2016 |
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ :
ईपुस्तक
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पुस्तक क्रमांक : 9729
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आईएसबीएन :9781613013434 |
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7 पाठकों को प्रिय
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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा
भाग - 5
निपुणिका
इस प्रचंडता का जग में कोई उपचार नहीं है ?
औशीनरी
पति के सिवा योषिता का कोई आधार नहीं है।
जब तक है यह दशा, नारियां व्यथा कहाँ खोयेंगी?
आंसू छिपा हँसेंगी, फिर हंसते-हँसते रोएंगी।
[कंचुकी का प्रवेश]
कंचुकी
जय हो भट्टारिके ! मार्ग भट्टारक को दिखलाने,
और उन्हें सक्षेम गंधमादन गिरि तक पहुंचाने।
जो सैनिक थे गए, आज वे नगर लौट आए हैं,
और आपके लिए संदेशा यह प्रभु का लाए हैं।
"पवन स्वास्थ्यदाई, शीतल, सुस्वादु यहाँ का जल है,
झीलों में, बस, जिधर देखिए, उत्पल-ही-उत्पल है।
लम्बे-लम्बे चीड़ ग्रीव अम्बर की ओर उठाए,
एक चरण पर खड़े तपस्वी-से हैं ध्यान लगाए।
दूर-दूर तक बिछे हुए फूलों के नंदन-वन हैं,
जहां देखिए, वहीं लता-तरुओं के कुञ्ज-भवन हैं।
शिखरों पर हिमराशि और नीचे झरनों का पानी,
बीचों बीच प्रकृति सोई है ओढ़ निचोली धानी।
बहुत मग्न अतिशय प्रसन्न हूँ मैं तो इस मधुवन में,
किन्तु यहाँ भी कसक रही है वही वेदना मन में।
प्रतिष्ठानपुर में भू का स्वर्गीय तेज जगता है,
एक वंशधर बिना, किन्तु, सब कुछ सूना लगता है।
पुत्र ! पुत्र ! अपने गृह में क्या दीपक नहीं जलेगा?
देवि ! दिव्य यह ऐल वंश क्या आगे नहीं चलेगा?
करती रहें प्रार्थना, त्रुटी हो नहीं धर्म-साधन में,
जहां रहूं, मैं भी रत हूँ ईश्वर के आराधन में।"
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