| 
			 ई-पुस्तकें >> उर्वशी उर्वशीरामधारी सिंह दिनकर
  | 
        
		  
		  
		  
          
			 
			 205 पाठक हैं  | 
     ||||||
राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा
 मदनिका
 जब तक यह रस-दृष्टि, तभी तक रसोद्रेक जीवन में,
 आलिंगन में पुलक और सिहरन सजीव चुम्बन में।
 विरस दृष्टि जब हुई स्वाद चुम्बन का खो जाता है,
 दारु-स्पर्श-वत सारहीन आलिंगन हो जाता है।
  
 वपु तो केवल ग्रन्थ मात्र है, क्या हो काय-मिलन से ?
 तन पर जिसे प्रेम लिखता,कविता आती वह मन से।
 पर, नर के मन को सदैव वश में रखना दुष्कर है,
 फूलों से यह मही पूर्ण है और चपल मधुकर है।
  
 पुरुष सदा आक्रांत विचरता मादक प्रणय-क्षुधा से,
 जय से उसको तृप्ति नहीं,संतोष न कीर्ति-सुधा से।
 असफलता में उसे जननी का वक्ष याद आता है,
 संकट में युवती का शय्या-कक्ष याद आता है।
  
 संघर्षों से श्रमित-श्रांत हो पुरुष खोजता विह्वल
 सर धरकर सोने को, क्षण-भर, नारी का वक्षस्थल।
 आँखों में जब अश्रु उमड़ते, पुरुष चाहता चुम्बन,
 और विपद में रमणी के अंगों का गाढालिंगन।
  
 जलती हुई धूप में आती याद छांह की, जल की,
 या निकुंज में राह देखती प्रमदा के अंचल की।
 और नरों में भी, जो जितना ही विक्रमी, प्रबल है,
 उतना ही उद्दाम, वेगमय उसका दीप्त अनल है
  
 प्रकृति-कोष से जो जितना हिएज लिए आता है,
 वह उतना ही अनायास फूलों से कट जाता है।
 अगम, अगाध, वीर नर जो अप्रतिम तेज-बल-धारी,
 बड़ी सहजता से जय करती उसे रूपसी नारी।
  
 तिमिराच्छन्न व्योम-वेधन में जो समर्थ होती है,
 युवती के उज्जवल कपोल पर वही दृष्टि सोती है।
 जो बाँहें गिरी को उखाड़ आलिंगन में भरती हैं,
 उरःपीड-परिरंभ-वेदना वही दान करती हैं।
  
 जितना ही जो जलधि रत्न-पूरित, विक्रांत, गम है,
 उसकी बडवाग्नि उतनी ही अविश्रांत, दुर्दम है।
 बंधन को मानते वही, जो नद, नाले, सोते हैं,
 किन्तु, महानद तो, स्वभाव से ही, प्रचंड होते हैं।
 
0
 			
		  			
						
  | 
				|||||

 
		 






			 
