ई-पुस्तकें >> उर्वशी उर्वशीरामधारी सिंह दिनकर
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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा
चित्रलेखा
धुँआ नहीं, ज्वाला देखी है, ताप उभयदिक सम है,
जो अमर्त्य की आग, मर्त्य की जलन न उससे कम है।
सुखामोद से उदासीन जैसे उर्वशी विकल है,
उसी भांति दिन-रात कभी राजा को रंच न कल है।
छिपकर सुना एक दिन कहते उन्हें स्वयं निज मन से,
”वृथा लौट आया उस दिन उज्ज्वल मेघों के वन से।
नीति-भीति, संकोच-शील का ध्यान न कुछ लाना था,
मुझे स्रस्त उस सपने के पीछे-पीछे जाना था।
एक मूर्ति में सिमट गई किस भांति सिद्धियाँ सारी?
कब था ज्ञात मुझे, इतनी सुन्दर होती है नारी?
लाल-लाल वे चरण कमल से, कुंकुम से, जावक से
तन की रक्तिम कांति शुद्ध, ज्यों धुली हुई पावक से।
जग भर की माधुरी अरुण अधरों में धरी हुई सी।
आंखॉ में वारुणी रंग निद्रा कुछ भरी हुई सी
तन प्रकांति मुकुलित अनंत ऊषाओं की लाली-सी,
नूतनता सम्पूर्ण जगत की संचित हरियाली सी।
पग पड़ते ही फूट पड़े विद्रुम-प्रवाल धूलों से
जहाँ खड़ी हो, वहीं व्योम भर जाये श्वेत फूलों से।
दर्पण, जिसमें प्रकृति रूप अपना देखा करती है,
वह सौन्दर्य, कला जिसका सपना देखा करती है।
नहीं, उर्वशी नारि नहीं, आभा है निखिल भुवन की;
रूप नहीं, निष्कलुष कल्पना है स्रष्टा के मन की”
फिर बोले- “जाने कब तक परितोष प्राण पायेंगे,
अंतराग्नि में पड़े स्वप्न कब तक जलते जायेंगे?
जाने, कब कल्पना रूप धारण कर अंक भरेगी?
कल्पलता, जानें, आलिंगन से कब तपन हरेगी?
आह! कौन मन पर यों मढ सोने का तार रही है?
मेरे चारों ओर कौन चान्दनी पुकार रही है?
नक्षत्रों के बीज प्राण के नभ में बोने वाली !
ओ रसमयी वेदनाओं में मुझे डुबोने वाली !
स्वर्गलोक की सुधे ! अरी, ओ, आभा नन्दनवन की!
किस प्रकार तुझ तक पहुंचाऊँ पीड़ा मैं निज मन की ?
स्यात अभी तप ही अपूर्ण है, न तो भेद अम्बर को
छुआ नहीं क्यों मेरी आहों ने तेरे अंतर को?
पर, मैं नहीं निराश, सृष्टि में व्याप्त एक ही मन है,
और शब्दगुण गगन रोकता रव का नहीं गमन है।
निश्चय, विरहाकुल पुकार से कभी स्वर्ग डोलेगा;
और नीलिमापुंज हमारा मिलन मार्ग खोलेगा।
मेरे अश्रु ओस बनकर कल्पद्रुम पर छाएँगे,
पारिजात वन के प्रसून आहों से कुम्हलाएँगे।
मेरी मर्म पुकार मोहिनी वृथा नहीं जायेगी,
आज न तो कल तुझे इन्द्रपुर में वह तड़पाएगी।
और वही लाएगी नीचे, तुझे उतार गगन से,
या फिर देह छोड़ मैं ही मिलने आऊंगा मन से।”
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