ई-पुस्तकें >> उर्वशी उर्वशीरामधारी सिंह दिनकर
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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा
सहजन्या
तो तुमने क्या किया?
चित्रलेखा
अरी, क्या और भला करती मैं?
कैसे नहीं सखी के दुःसंकल्पों से डरती मैं ?
आज सांझ को ही उसको फूलों से खूब सजाकर,
सुरपुर से बाहर ले आई, सबकी आंख बचाकर।
उतर गई धीरे-धीरे चुपके, फिर मर्त्य भुवन में,
और छोड़ आई हूँ उसको, राजा के उपवन में।
रम्भा
छोड़ दिया निःसंग उसे प्रियतम से बिना मिलाये?
चित्रलेखा
युक्ति ठीक है वही, समय जिसको उपयुक्त बताए।
अभी वहाँ आई थी राजा से मिलने को रानी,
हमें देख लेती वे तो फिर बढ़ती वृथा कहानी।
नृप को पर है विदित, उर्वशी उपवन में आई है,
अतः मिलन की उत्कंठा उनके मन में छाई है।
रानी ज्यों ही गई, प्रकट उर्वशी कुंज से होगी,
फिर तो मुक्त मिलेंगे निर्जन में विरहिणी-वियोगी।
रम्भा
अरी, एक रानी भी है राजा को?
चित्रलेखा
तो क्या भय है?
एक घाट पर किस राजा का रहता बंधा प्रणय है?
नया बोध श्रीमंत प्रेम का करते ही रहते हैं,
नित्य नई सुन्दरताओं पर मरते ही रहते हैं।
सहधर्मिणी गेह में आती कुल-पोषण करने को,
पति को नहीं नित्य नूतन मादकता से भरने को।
किंतु, पुरुष चाह्ता भींगना मधु के नए क्षणों से,
नित्य चूमना एक पुष्प अभिसिंचित ओस कणों से।
जितने भी हों कुसुम, कौन उर्वशी–सदृश, पर, होगा?
उसे छोड़ अन्यत्र रमें, दृगहीन कौन नर होगा?
कुल की हो जो भी, रानी उर्वशी हृदय की होगी?
एक मात्र स्वामिनी नृपति के पूर्ण प्रणय की होगी।
सहजन्या
तब तो अपर स्वर्ग में ही तू उसको धर आई है,
नन्दन वन को लूट ज्योति से भू को भर आई है।
मेनका
अपर स्वर्ग तुम कहो, किंतु, मेरे मन में संशय है।
कौन जानता है, राजा का कितना तरल हृदय है?
सखी उर्वशी की पीड़ा, माना तुम जान चुकी हो ;
चित्रे ! पर, क्या इसी भांति, नृप को पहचान चुकी हो?
तड़प रही उर्वशी स्वर्ग तज कर, जिसको वरने को,
प्रस्तुत है वह भी क्या, उसका आलिंगन करने को ?
दहक उठी जो आग चित्रलेखे ! अमर्त्य के मन में,
देखा कभी धुँआ भी उसका, तूने मर्त्य भुवन में?
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