ई-पुस्तकें >> उर्वशी उर्वशीरामधारी सिंह दिनकर
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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा
सहजन्या
यह कराल वेदना पुरुष की ! मानव प्रणय-व्रती की !
चित्रलेखा
यही समुद्वेलन नर का, शोभा है रूपमती की।
सुन्दर थी उर्वशी ! आज वह और अधिक सुन्दर है।
राका की जय तभी, लहर उठता जब रत्नाकर है।
सहजन्या
महाराज पर बीत रहा इतना कुछ? तब तो रानी,
समझ गई होंगी, मन-ही-मन, सारी गूढ़ कहानी।
चित्रलेखा
कैसे समझे नहीं ! प्रेम छिपता है कभी छिपाए?
कुल-वामा क्या करे, किंतु, जब यह विपत्ति आ जाए?
प्रिय की प्रीति हेतु रानी कोई व्रत साध रही है,
सुना, आजकल चन्द्र-देवता को आराध रही है।
सहजन्या
तब तो चन्द्रानना-चन्द्र में अच्छी होड़ पड़ी है।
मेनका
यह भी है कुछ ध्यान, रात अब केवल चार घड़ी है।
रम्भा
अच्छा, कोई तान उठाओ, उड़ो मुक्त अम्बर में,
भू को नभ के साथ मिलाए चलो गीत के स्वर में।
समवेत गान
बरस रही मधु-धार गगन से, पी ले यह रस रे !
उमड़ रही जो विभा, उसे बढ़ बाहों में कस रे !
इस अनंत रसमय सागर का अतल और मधुमय है,
डूब, डूब, फेनिल तरंग पर मान नहीं बस रे !
दिन की जैसी कठिन धूप, वैसा ही तिमिर कुटिल है,
रच रे, रच झिलमिल प्रकाश, चाँदनियों में बस रे !
[सब गाते-गाते उड़ कर आकश में विलीन हो जाती हैं]
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