ई-पुस्तकें >> तिरंगा हाउस तिरंगा हाउसमधुकांत
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समकालीन कहानी संग्रह
इस पाठ को समझने के बाद तो तिरंगे के प्रति उसका लगाव अधिक बढ़ गया। तिरंगे से बनी कोई भी वस्तु देखकर उसके मन में हिलोर उठने लगता और वह उसे पाने के लिए आतुर हो जाता।
अनमने भाव से पतंग और डोर लेकर वह छत पर आ गया। कन्ने बांधकर वह पतंग उडाने लगा। अनुभव न होने के कारण बार-बार कठोर परिश्रम करने के बाद भी वह पतंग उड़ाने में सफल नहीं हो रहा था। तभी पीछे से उसे एक तिरंगे की पतंग कटकर आती नजर आयी। अपने पतंग को छोड़कर वह तिरंगे को पकड़ने के लिए छत पर इधर-उधर भागने लगा। कई वर्षों के बाद उसके मन की मुराद पूरी हुई। उड़ते हुए तिरंगे की डोर को पकड़कर वह छत पर नाचने लगा। आवाज लगाकर अपने दादा जी को भी बता दिया। धीरे धीरे सहजता के साथ अपनी चरखी पर डोर लपेटते हुए उसने पतंग को अपनी छत पर उतार लिया। जेब से रूमाल निकालकर छत को साफ किया, फिर वहां तिरंगे को लेटाकर तीनों रंगों को सहलाया। सहलाते हुए एक अभूतपूर्व सुखानुभूति का अनुभव हुआ...... एक क्षण उसे लगा कि पापा उसे आशीर्वाद देने आ गए हैं।
तिरंगे की पतंग उड़ाने का उसका मन न हुआ.... कहीं किसी ने उस पतंग को काट दिया तो.... वर्षों बाद पूर्ण हुई बहुमूल्य निधि को वह खोना नहीं चाहता था। अचानक उसे कुछ सूझा और चिपकाने वाली सैलोटेप से अपने मकान की अटारी पर पतंग को मजबूती के साथ चिपका दिया।
अटारी के चारों ओर घूमकर उसने तिरंगे को देखा। खुशी और उत्साह के साथ दादा, दादी, मम्मी और दोस्तों को अपने तिरंगे को दिखाने के लिए वह छत से नीचे आ गया।
बहू ने बैठक में आकर प्रतिदिन के अनुसार अपने सास-ससुर अर्थात् सूबेदार, सूबेदारनी के पांव छूए..... ‘मम्मी जी खाने में क्या बनाऊं....?’ बेटी आज तो सारे घर में ही है, इसलिए दाल-चावल बना ले साथ में सबको घी बूरा भी दे देना........।
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