ई-पुस्तकें >> तिरंगा हाउस तिरंगा हाउसमधुकांत
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समकालीन कहानी संग्रह
शायद तभी से उसे तिरंगा बहुत अच्छा लगने लगा। गणतन्त्र दिवस पर राष्ट्रीय ध्वज बनाने की प्रतियोगिता हुई तो उसका बनाया झण्डा ही प्रथम आया था। रात को बिस्तर पर लेटे हुए कई बार वह सोचता कि छोटी तितली बनकर किसी तिरंगे की पतंग से चिपक कर उड़ जाऊँ और जब वह पतंग ऊपर आकाश के बादलों में उड़ने लगे तो अपने पापा को ढूंढ कर मना लाऊँ। जब मैं उन्हें समझाऊंगा कि मां उनके बिना रोती रहती है तो वे अवश्य लौट आएंगे...।
गली से आते दादा जी के हाथ में पतंग और डोर देखकर उसका उत्साह बुझ गया-‘दादा जी मैंने कहा था कि आप तिरंगे की पतंग ही लाना और आप...
‘नहीं मिली कृष्णा तेरी तिरंगे की पतंग, सारा बाजार छान मारा, आज तू इसे उड़ा ले, कल तेरे लिए तिरंगे वाली पतंग भी ले आऊंगा.. दादा जी ने पतंग डोर उसको सोंप दी।
दो वर्ष बाद यह बात तो कृष्णा की समझ में आ गई कि पिता जी शरहद पर देश के दुश्मनों के साथ युद्ध करते हुए शहीद हो गए। वह यह भी जान गया था कि शहीद होने के बाद कोई सैनिक लौटकर नहीं आता.... पापा भी नहीं... फिर भी तिरंगे के प्रति उसका मोह कम नहीं हुआ बल्कि अधिक बढ़ गया। जब हिन्दी अध्यापक ने कक्षा में राष्ट्रीय ध्वज का पाठ पढ़ाते हुए बताया कि राष्ट्रीय ध्वज हमारी आन-बान और शान का प्रतीक है। इसका केशरिया रंग भारतीय शूरवीरता और त्याग का, सफेद रंग स्वच्छता और शान्ति का तथा हरा रंग हरियाली और खुशहाली का प्रतीक है। इसके बीचों बीच महाराज अशोक के स्तम्भ से लिया गया अशोक चक्र है। जिसमें चौबिस रेखाएँ, चौबिसों घण्टे परिश्रम और तरक्की करने की प्रेरणा देती हैं। हम सबको अपने तिरंगे को सदैव मान और सम्मान देना चाहिए।
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