ई-पुस्तकें >> तिरंगा हाउस तिरंगा हाउसमधुकांत
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समकालीन कहानी संग्रह
तिरंगा हाउस
कृष्णा आज बहुत खुश था। घर की दहलीज पर खड़ा वह अपने दादा जी के आने की प्रतीक्षा कर रहा था। बाजार जाते समय वे उससे वायदा करके गए थे कि उसके लिए तिरंगे का पतंग और डोर लेकर आएंगे। दादा जी फौजी हैं ना, कभी भी झूठ नहीं बोलते इसलिए आज तो उसे पतंग-डोर मिल ही जाएगी।
पिछले दो वर्ष से हर बार वह अपने दादा जी से तिरंगे की पतंग और डोर लाने का आग्रह करता रहा, परन्तु वे कुछ दूसरी वस्तुएं दिलाकर पतंग उड़ाने से मना कर देते हैं। दो वर्ष पूर्व भी उसने दादा जी की कमर सहलाते हुए कहा था- दादा जी आप जब भी मेरे लिए पतंग लाओ, लाना तिंरगे की......।
‘तिरंगे की ही क्यों.......?’ ‘क्योंकि दादा जी तिंरगे की पतंग सबसे ऊंची उड़ती है और कभी किसी से कटती भी नहीं......।’ अचानक कृष्णा को ख्याल आया कि वह तिरंगे को ही क्यों पसंद करता है.... धीरे धीरे उसे याद आता है इसी तिरंगे के बीच पापा शहीद होकर आए थे..... सैनिकों ने मातमी धुन बजाई थी और पापा को लकडि़यों पर रखकर आग लगा दी थी।
सायं को मुझे गुमसुम देखकर दादा जी ने समझाया- कृष्णा तेरे पापा तिरंगे में लिपटकर आकाश के रास्ते स्वर्ग में चले गए हैं। कुछ दिनों के बाद लौट आएंगे।
‘कुछ दिनों में क्यों दादा जी, क्या वे हमसे रूठकर चले गए हैं?’
‘नहीं रे कृष्णा, तेरे पापा तो बहुत अच्छे थे कभी किसी से नाराज नहीं हुए। भारत माता के काम से गए हैं, काम समाप्त होते ही लौट आएंगे.... रात बहुत हो गयी है। आंख बंद करके मन में गायत्री मंत्र का जाप कर ले, नींद आ जाएगी। दादा जी ने कृष्णा को तो समझाकर सुला दिया परन्तु खुद की आंखों से नींद उड़ी रही सारी रात।
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