ई-पुस्तकें >> तिरंगा हाउस तिरंगा हाउसमधुकांत
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समकालीन कहानी संग्रह
आपके घर में सुबह सायं प्रतिदिन दो समय सरकारी पानी आता है। कितनी बार पानी व्यर्थ बहता रहा है। बेकार जाते हुए पानी को देखकर मेरा दिल ललचाता रहता है।
आपके आफिस जाने के बाद हम टकटकी लगाए आकाश की ओर देखते रहते हैं परन्तु कोई बदली हमारे लिए पानी लेकर नहीं आती और यदि आ भी जाए तो भी हमारी प्यास नहीं बुझा सकती। एक दिन बादल गरजे, पानी भी बरसा परन्तु बरामदे में होने के कारण हम उसे छू भी न पाए। जमीन में गिरकर एक दो बूंद का अंश छिटककर हमारे होठों को गीला भर कर पाया। आप जरा सोचिए प्यासे से एक मीटर की दूरी पर स्वच्छ पानी गिरता रहे और प्यास के कारण उसकी जान निकली जा रही हो तो उस पर क्या गुजरेगी?
इससे तो अच्छा था आपने हमें अपने गमले में न सजाकर जमीन में रोप दिया होता। अपनी धरती माता से ही कुछ पानी सोख लेते, कम से कम वह हमें मरने तो न देती....।
बोलता हुआ गुलाब अचानक चुप हो गया। वह मुरझाकर गिरने लगा। मैंने भागकर उसको पकड़ना चाहा परन्तु मैं एक गहरे खड्डे में गिर गया, फिर वह मेरे हाथ नहीं आया।
एकाएक तड़फकर में बिस्तर से उठ बैठा। दोनों हाथों से अपना माथा थाम लिया- हे भगवान, मुझसे ये कैसा अपराध हो गया। अब इस पश्चाताप की पीड़ा से मैं कैसे निकल पाऊंगा.... बिस्तर से उठकर वह बाहर, आंगन में आ गया। मरा हुआ गुलाब अब भी उसकी ओर देख रहा था। वह जाकर उसके पास खड़ा हो गया और मन ही मन संकल्प करने लगा- अपने घर दफ्तर में कोई पौधा लगाऊंगा तो अपने बच्चे की तरह उसकी देखभाग कंरूगा अन्यथा पौधे को रोपूंगा नहीं।
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