ई-पुस्तकें >> तिरंगा हाउस तिरंगा हाउसमधुकांत
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समकालीन कहानी संग्रह
‘क्या सूबेदारनी आज भी दाल-चावल, इतना बड़ा आजादी का त्यौहार है, आज तो हलवा पूरी.......’
‘आज कौन सा त्यौहार है, भगते के बापू?’
‘अरे पागल, इतने बरस की हो ली, इतना भी नहीं पता आज देशवासियों का सबसे बड़ा त्यौहार है। आज पन्द्रह अगस्त है। आज के दिन देश आजाद हुआ था.....’
‘होली-दिवाली, ईद के त्यौहार तो सुने पर आज का त्यौहार तो कोई अपने घर में ना मनाता ....।’
‘भगते की मां यही तो दुःख है कि स्वतत्रता दिवस और गणतन्त्र दिवस दोनों त्यौहार सारे देशवासियों के त्यौहार हैं परन्तु लोग इन्हें केवल सरकारी त्यौहार मानते हैं। आजादी के 67 वर्ष के बाद भी ये दोनों महान दिवस हमारे परिवार समाज और संस्कारों का हिस्सा नहीं बना पाए.....।’
‘देश, आजादी, ईमानदारी, तुम फौजी लोग ही इसकी चर्चा करते हो.... मैं तो कहती हूँ तुमने ही मेरे एकलौते बेटे का नाम जिद्द करके भगत सिंह रखवाया.... फिर फौज में भेजने की जिद्द की...... क्या मिला?.... बहू की ओर देखती हूँ तो कलेजा हाथ में निकलकर आ जा सै.... पता नहीं बेचारी का कैसे कटेगा इतना बड़ा रंडापा.....।’ सूबेदारनी की आंखों में आंसू झलक आए।
‘पागल है के, आजादी के दिन या कैसी बात ले बैठी। पता है भगते जैसे बेटे को पाकर मुझे बड़ा गर्व है। पांच दुश्मन सैनिकों को मारकर मरा है..... देख अब ये तेरा कृष्णा बड़ा हो जाएगा, भगत सिंह के शहीद होने का सारा दुःख भूल जाएगी...।
कृष्णा अपने दोस्तों के साथ खेलकर घर लौट आया। दादा जी ऊपर देखो मेरा तिरंगे वाला पतंग...।
दादा जी, दादी जी और अम्मा अटारी पर चिपके तिरंगे को देखती हैं। दादा जी ने आश्चर्य से पूछा- ये तिरंगे का पतंग तो मैं लाया नहीं था, फिर इसे कहां से लाया?
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