ई-पुस्तकें >> तिरंगा हाउस तिरंगा हाउसमधुकांत
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समकालीन कहानी संग्रह
‘हेमा कुछ भी खाने की इच्छा नहीं है.... मन अपराध बोध से निकल नहीं पा रहा है..... मैं सोचता हूँ गुलाब की मौत का जिम्मेदार मैं ही हूँ।’
‘एक कप चाय पी लो मूड ठीक हो जाएगा। चाय पीने के बाद कुछ काम में लग जाओगे तो आपका ध्यान उससे हट जाएगा।’’ राजकुमार के सामने चाय रखते हुए हेमा ने सुझाया।
चाय पीने के बाद भी राजकुमार की उदासी कम न हुई। गुलाब की देखभाल न कर पाने का अपराध बोध उसपर अधिक भारी होता जा रहा था। अखबार को उलट-पलट कर सुर्खियां पढ़ लीं। टी.वी. खोलकर क्रिकेट का मैच देखने का उपक्रम किया परन्तु वहां भी भारत को पराजित होते हुए देखना, अच्छा न लगा। सामने पार्क में हल्का-हल्का अंधेरा घिरने लगा था, परन्तु आज तो सायं की सैर को जाने का भी उसका मन न हुआ। हेमा ने डिनर के लिए पूछा तो उसने एकदम मना कर दिया। ‘रात को ठीक से सो गए तो सुबह तक सब भूल जाएंगे’ यह सोचकर हेमा ने दूध का गिलास दे दिया। दूध पीकर राजकुमार जल्दी ही सो गए।
एकाएक उसका प्रिय खिला हुआ गुलाब इठलाता हुए उसके सामने आ गया। राजकुमार को आश्चर्य हुआ गुलाब के पांव लगे हैं और वह नन्हें कदमों से चलकर उसके सामने आ गया है। वह उनको अजनबी नजरों से देख रहा है। अचानक गुलाब के होंठ फड़फड़ाए और बोलने लगा- मेरे मालिक.... मेरे मालिक आप मुझे पहचानते हैं ना, मैं आपके बरामदे का गुलाब हूँ। दो वर्ष पूर्व आपने मुझे अपने हाथों से एक गमले में रोपा था। वर्ष भर आपने मेरी भरपूर देखभाल की। मुझे खिलाया पिलाया, सजाया-संवारा, सब किया। फिर मेरी देखभाल के लिए आपने मुझे माली के हाथों सौंप दिया। मैं हंसता मुस्कराता आपके आंगन की सुंदरता बढ़ाने लगा। मेरी सुंगध से आकर्षित होकर तितली-भंवरे मुझपर मंडराने लगे। मेरे पास से गुजरते हुए आप ठिठककर मुझे निहारते रहते थे। मंदिर में जलाभिषेक करने जाते तो सबसे पहले मुझे एक गिलास पानी पिलाकर जाते...।’
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