ई-पुस्तकें >> तिरंगा हाउस तिरंगा हाउसमधुकांत
|
9 पाठकों को प्रिय 344 पाठक हैं |
समकालीन कहानी संग्रह
बरगद की बेटी
मंदिर के मुख्यद्वार के सामने जलते बल्ब की रोशनी बरगद के पेड़ के पास हल्की हल्की आ रही थी। फिर भी लड़कियों और महिलाओं ने वहां सबसे सुरक्षित स्थान पाकर अपनी पथवारी बैठा ली। कार्तिक स्नान के लिए सुबह चार बजे एकत्रित होकर कुएं पर स्नान करतीं, भजन, गीत, कथा, हंसी ठिठोली करतीं। कार्तिक की ठण्ड और सुबह के चार बजे, सोचते हुए भी शरीर कंपकपाने लगता परन्तु उस महिला समूह को तनिक भी ठण्ड न लगती।
कुएं पर स्नान करने के बाद महिला समूह जैसे ही अपनी पथवारी के पास, बरगद के पेड के नीचे आया तो चौंक गया। बरगद से दबी-दबी आवाज आ रही थी। सभी सहमकर पीछे हट गयी और आवाज को ध्यान से सुनने लगी।
‘मैंने तो कोई भूत प्रेत लागे सै, रुकमणी ने ऊंगली अपने गाल पर रख ली।
‘ना बेबे या तो मारी पथवारी की आवाज सै’ गुलाबो बोली।
‘पीछे हटो, ला मैं पथवारी का दिया जलाकर देखूं क्या मामला है’
‘विमला उत्साह पूर्वक सबसे आगे आ गयी। उसने माचिस से दीया जलाया तो सब साफ साफ दिखाई देने लगा।
‘अरे ये तो कपड़े में लिपटा कोई नवजात शिशु (बालक) है। ‘जिंदा है जिंदा’ विमला ने उसे अपने हाथ में उठा लिया।
‘हे भगवान किसकी ममता सूखगी, चाला होग्या म्हारे गाम म। इसा कुकर्म तो कदै ना हुआ था ‘‘आंहे, या तो छोरी सै छोरी -बेरा ना किस पापन नै या मौत के मुंह में फैंक दीं।’’
‘‘इब तू इसने अपने हाथों में मारेगी। मंदिर के अंदर ले चाल कुछ गरम ठण्डा करके इसकी जान बचावगै।’’
उस दिन वह महिला समूह पथवारी की कथा तो भूल गया और उस नन्ही पथवारी की देखभाल में लग गया। ठण्ड से बचाने के लिए मंदिर की पुजारिन से गर्म कपड़ा लिया तथा गईया का दूध चम्मच से उसके गले में डाला।
|