ई-पुस्तकें >> तिरंगा हाउस तिरंगा हाउसमधुकांत
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समकालीन कहानी संग्रह
उस दिन वृद्ध मजदूर के साथ अन्य भी कई लोग आए थे। उन्होंने अपनी कांपती मुट्ठी मेरी हथेली पर खोल दी थी। मैंने लाख मना किया लेकिन सजल आंखों से उन्होंने हाथ जोड़ दिए। जबसे उनका स्वर्गवास हुआ, कदम-कदम पर इन्होंने ही तो मेरा साथ दिया तब मैंने निश्चय किया था नीरू के बड़ा होने तक झण्डे को मैं संभालूंगी।
बार-बार मेरे जहन में एक ही प्रश्न उठता- निशाना उन्हें ही क्यों बनाया गया। उनकी अलमारी से निकालकर पुस्तकें पढ़ती। तब मैंने जाना उनकी बातों में कितनी सच्चाई छुपी थी। जो बातें मुझे बुरी लगती थी अब वही सच लगने लगीं।
मैं लगन से नीरू को बड़ा करने लगी ताकि उसके पिता का दिया हुआ झण्डा उसके हाथ में दे सकूँ।
लेकिन दूसरी बच्ची के जन्म पर घर का कुछ तो चुक गया था। फिर नीरू के हाथों को भी मजबूत करना था। मैं किसी पर बोझ बनकर जीना नहीं चाहती थी। मैंने किसी की सहायता स्वीकार नहीं की और मैं स्वयं ही कमाने के लिए घर से निकल पड़ी।
पास के होटल में परदे और फटी चादरें ठीक करने का काम मिल गया मुझे। धीरे-धीरे वहां और भी कई काम मिलने लगे और आगे बढ़ने लगा।
उस रात होटल में बड़ा जश्न मनाया जा रहा था। मैं बिस्तर पर चादर बदलकर मुड़ी तो बलपूर्वक किसी ने मुझे पकड़ लिया। मैंने पूरी ताकत से शोर मचाया लेकिन लाउड स्पीकर की आवाज ने मेरी चीखों को दबोच लिया।
मेरे फटे आंचल को उसने दौलत से सीं देना चाहा लेकिन मैं उन कागज के टुकड़ों को फेंककर अपने घर लौट आई। पति की मृत्यु का उस दिन भी इतना दु:ख नहीं हुआ था... पर फिर भी मैंने कठोरता से जीने का निश्चय कर लिया था।
जीने का बस एक ही उद्देश्य रह गया है नीरू के हाथों को मजबूत करना और उसके पापा का दिया झण्डा उसे दे देना।
पर अब कैसे काम चलेगा। बच्चे बड़े होकर सब समझने लगे हैं। यह स्थान बदल देना ही ठीक है।
पिंकी रोटियां खाती-खाती वहीं लुढ़क गई थी। उसे उठाकर वह बिस्तर पर लिटा देती है।
नीरू भी सो गया है। तभी उसे ख्याल आता है वह तो भूखा होगा... दिन से कुछ भी तो नहीं खाया है उसने। वह एक नान का टुकड़ा उठाकर उसके मुँह पर लगा देती है और वह नींद में ही उसे चबाने लगता है।
दोनों बच्चों के बीच लेटी वह नीरू के हाथ की लम्बाई नाप रही थी।
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