ई-पुस्तकें >> तिरंगा हाउस तिरंगा हाउसमधुकांत
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समकालीन कहानी संग्रह
और वह चुपचाप रसोई की ओर चली गई थी।
सुबह उठी तो उनका थैला खूंटी पर लटक रहा था। रात न जाने कब आए। झटपट उसने थैला उतारकर देखा- एक पुस्तक, झण्डा, डायरी तथा पैंसिल-उसके मन में कुछ संतोष हुआ।
‘मुझे आज जल्दी जाना है। मिल मालिक ने तालाबन्दी कर दी है। इसलिए हमें भारी प्रदर्शन करना है-’ कहते हुए वे तैयार होकर कमरे में आ गए।
‘आज मत जाओ-मेरा मन डर रहा है’- रात के भयानक सपने से अब भी उसका दिल धड़क रहा था।
‘क्यों-?’
‘देखो आज मेरी बात मान लो’ - मैंने बांह पकड़ी ली थी- ‘तुम्हें कुछ हो गया तो-।’ मेरी आंखें चू पड़ी थीं।
‘हट पगली एक मजदूर की पत्नी होकर इतनी कमजोर-असल में तो मुझे कुछ होता नहीं- और फिर...झण्डा संभालने वाले पीछे भी मजबूत है।’
थैले में से झण्डा निकालकर- ‘एक झण्डा तुम नीरू के लिए रख देना खड़ा होगा तो संभाल लेगा -।’
वे चले गए और मैं झण्डा हाथ में लिए अवाक्-सी खड़ी उन्हें जाते हुए देखती रही।
सपना सच निकला। बाद में मुझे एक मजदूर औरत ने बताया-इस जालिम सेठ के विरुद्ध नारे लगा रहे थे। तभी कुछ आदमी हाथ में मशाल लिए हमारे बीच आकर जोर-जोर से नारे लगाने लगे। इससे पहले तो हमने कभी देखा नहीं था। वे मिल को आग लगाने के लिए आगे बढ़े। हमारे बाबू ने उन्हें बहुत रोका पर कोई न रुका... तभी मिल के चौकीदार ने हमारे बाबू पर गोली चला दी। बीबी जी ये सब मुए सेठ का ही काम लगता है... हम क्या करें बीबी जी, बाबू के चले जाने से तो हम अनाथ हो गए... उसकी आंखें रो पड़ी थी।
ससुराल से, मायके से, सब आए। सबने साथ ले जाने की कही लेकिन आग्रहपूर्वक निमन्त्रण किसी स्वर में न था। मैं शायद जाती भी नहीं... मुझे उनके सपनों को पूरा जो करना था।
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