ई-पुस्तकें >> तिरंगा हाउस तिरंगा हाउसमधुकांत
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समकालीन कहानी संग्रह
नौकरी के साथ कुछ दिन गाड़ी अपनी धुरी पर ठीक घूमती रही लेकिन किस्मत में शायद वह सब नहीं था- फिर नहीं दुबले-पतले, मैले मजदूर उनके पास आगे लगे। अपने साथ ले जाने लगे। जीवन में सब कुछ तो नहीं मिलता। सोचकर मैं नीरू को गले से चिपकाए घर में पड़ी रहती।
उस दिन पिताजी का खत पढ़कर मैं अपना माथा पकड़कर बैठ गई। मुझे तो कुछ पता ही नहीं रहता यहां क्या-क्या हो रहा है- नौकरी नहीं रही तो रोटियों के भी लाले पड़ जाएंगे।
सायं घर लौटे तो मेरी नजर उनके कंधे पर लटकते थैले में झांक रही थी। लेकिन इतना साहस न था कि कंधे से उनका थैला उतारकर उसमें हाथ डाल ले।
‘इस फैक्ट्री में भी हड़ताल करवा दी क्या...’
क्या करता, वो अपना ब्रजेश है ना उसकी मौत फैक्ट्री की खुली मशीन से हुई लेकिन आज तक उसकी पत्नी को कुछ नहीं मिला- साला सेठ बना फिरता है... हम भी उसका अधिकार दिलवा के रहेंगे।
‘और मेरा अधिकार-’
‘क्यों तुम्हें क्या चाहिए’- वे कुछ चौंके थे।
‘मुझे मेरा पति चाहिए’
उनका हाथ मेरे कंधे पर आ गया था- देखो हमें जो कुछ मिला है- दूसरे बहुत ऐसे भी हैं जिनको कुछ नहीं मिला उन्हीं के लिए तो हम लड़ रहे हैं। तुम तो पढ़ी लिखी हो- क्या तुम नहीं चाहती सबको जीने के लिए तो कुछ मिले। हमें खाने की दो रोटियां मिल जाती हैं लेकिन हमारी लड़ाई उनके लिए है जिनको कई-कई रात भूखा सोना पड़ता है।
‘लेकिन तुम्हारी नौकरी-’ मैं उनके शब्दों में गहरी सच्चाई अनुभव करती लेकिन यथार्थ में जीने के लिए भी तो कुछ चाहिए।
‘नौकरी के भय से अन्याय कैसे सह लें- संघर्ष कैसे बन्द कर दें। इस प्रकार तो हम एक दिन इन मिल मालिकों के पालतू कुते बन जाएंगे’ - वे उतेजित हो गए थे - मुझे अभी दफ्तर जाना है तुम जल्दी से कुछ खाने को दे दो।
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