ई-पुस्तकें >> तिरंगा हाउस तिरंगा हाउसमधुकांत
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समकालीन कहानी संग्रह
वह उठकर बराबर वाले कमरे में नीरू के पास आ गई। अभी तक वह औंधा पड़ा सुबक रहा था। इसमें बच्चे का क्या दोष... नीरू बेटे... नी... रू... गोद में उठाकर वह भी फूट पड़ी। देर तक मन को हल्का करती रही।
‘वह क्यों बच्चे के साथ पागल हुई जा रही है... कौन है उन्हें धीर बंधाने वाला-अपने को और फिर नीरू को संभाला उसने- बेटे मैं कल तेरी टीचर से जाकर कह दूंगी... फिर तुझे कोई कुछ नहीं कहेगा।
‘स्कूल में जाने से क्या होगा। पड़ोस की शीला आंटी- अमर अंकल सब यही कहते हैं। रात को जब तुम कार से उतारती हो तो सब अपनी अपनी खिडकियां खोलकर तुम्हें घूरते रहते हैं नीरू ने सिर उठाकर क्रोध से कहा।
गाड़ी पड़ोस वाले कब किसको जीने देते हैं उस दिन सामने वाली भंगन के लड़के और नीरू को लेकर कैसा झगड़ा हुआ था। मैंने केवल इतना ही तो कहा था- कमल की मां जरा अपने कमल को समझाना हमारे नीरू को उल्टी-सीधी बातें न करे।
वह तो जैसे भरी बैठी थी - क्या उल्टी-सीधी बातें कह दी जो आई है हिमायत लेकर... कौन झूठ बोलता है... सच ही तो कहता है...
‘कमल की मां’ - उसका चेहरा सफेद पड़ गया था।
‘अरी ये आंखें किसी को होटल में जाकर दिखाना। बेचारा लीडर तो मारा गया...’ अब कौन रोके... सारे दिन ऐश उड़ाती फिर...
कौन जबान लड़ाता उससे... और अपमान कराने के अतिरिक्त लाभ भी क्या था। सो मैं ही अपने कमरे में चली आई थी।
उसकी आवाज अब भी दीवारें चीरकर अंदर आ रही थी - ‘कोई कमरा ले ले धन्धा करने के लिए। सारे मोहल्ले को तो गन्दा न कर... आई है मेरे कमल की शिकायत लेकर... छाज तो बोले लेकिन छलनी भी क्या बोले जिसमें सत्तर छेद-
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