ई-पुस्तकें >> तिरंगा हाउस तिरंगा हाउसमधुकांत
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समकालीन कहानी संग्रह
पति न कमाए तो स्त्री घर के लिए बोझ बन जाती है। मैं भी पहले जितनी हल्की-फुल्की नहीं रही थी। कदम-कदम पर अपमान। लेकिन बच्चों के साथ दोहरा व्यवहार देखकर मेरा दिल भर आता था। बच्चे छोटी-छोटी चीजों के लिए किलसते... मेरी आंखें भर आती। अब एक ही परिवार में दो वर्ग बनने आरम्भ हो गए थे।
उस बार यूनियन के काम से बाहर गए तो कई दिन बाद लौटे। किसी मजदूर का कोर्ट में केस था। आते ही पिताजी से सामना हो गया था।
‘अरे अविनाश इन मजदूरों में क्या रखा है। कुछ व्यापार में हाथ बंटा। अब तू बच्चा तो रहा नहीं है।’
‘पिताजी मुझसे आपका ये काला व्यापार नहीं होता...’
‘तो सफेद व्यापार कर ले... कुछ कर तो...’
‘कोशिश कर रहा हूँ कहीं नौकरी मिल जाए...’
‘इन बच्चों को भूखा मारना था तो शादी ही क्यों की थी--।’
‘आपने ही मेरे साथ जबरदस्ती की थी--।’
‘तो मैंने क्या बुरा किया था... शादी करना क्या बुरा होता है। वह सारे दिन घर में रोती रहती है। अपने साथ ले जा... रोटियाँ खिलाएगा तब पता लगेगा’-- पिताजी ने अपना फैसला दे दिया।
‘अच्छा’ --
बस एक घण्टे बाद ही वे मुझे बाहर खींच लाए थे। क्रोध से उनका मन जल रहा था। मैंने भी अपने घर जाने का निश्चय कर लिया था सो विरोध नहीं किया।
तब से इस छोटे से किराए के मकान में जिन्दगी रफता-रफता कटती आ रही है।
छत पर बने ढेर सारे मकड़ी के जालों से निकलती हुई वह सोचती है इस दिवाली पर वह अवश्य इन्हें साफ कराएगी।
इन बच्चों के लिए ही तो वह शहर में आई। अपना मन तो मसोस ले लेकिन बच्चों को किलसता कैसे देखे... उसकी ममता नीरू पर उमड़ पड़ी।
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