ई-पुस्तकें >> तिरंगा हाउस तिरंगा हाउसमधुकांत
|
9 पाठकों को प्रिय 344 पाठक हैं |
समकालीन कहानी संग्रह
झण्डा
कैसे होते होंगे रोटी के पेड़... अपनी तुलसी माता जैसे... नहीं-नहीं पीपल के पेड़ जैसे होते होंगे... उन्हीं पर लटकती रहती होगी... पेड़ उगाने वाले के तो मजे रहते होंगे... जब चाहे जितनी ताजा रोटियाँ तोड़े और पेट भर के खाए... मैं भी नीरू से कहूँगी अपने आंगन में एक पेड़ लगा दे... बस फिर तो मजा आ जाएगा... पर कहीं मम्मी झूठ न बोल रही हो... रोज तो अंगीठी पर रोटियाँ बनाती है... मुझे तो कुछ मालूम नहीं नीरू से पूछना चाहिए।
नीरू कमरे में उदास बैठा कुर्सी के हत्थे को मुक्के मार-मारकर पीट रहा था।
‘नीरू भइया कहीं रोटी के भी पेड़ होते हैं क्या’ - पिंकी ने उसके पास आकर पूछा?
‘तुझे तो हर वक्त रोटियों की पड़ी रहती है... ले खा रोटी...और खा...’ नीरू उसकी कमर में कई मुक्के लगा देता है।
पिंकी जोर-जोर से मां-मां चिल्लाती हुई दूसरे कमरे में भाग जाती है। सारा घर सिसक उठता है। नीरू को मालूम है इसलिए उसे आज भूखे होते हुए भी रोटियों से नफरत है। उसके अन्दर बहुत कुछ लावा मां बनकर पिघलता जा रहा है।
मां बाहर गई है लेकिन उसे तो अब तक आ जाना चाहिए था। कभी-कभी होती है इतनी देर तो और जब कभी इतनी देर हो जाती है तो मम्मी स्पेशल खाना लाती है।
देर होने पर नीरू को डर भी तो लगने लगता है उसे पिंकी पर दया आती है, उसे भूख भी तो लगी होगी लेकिन वह कुर्सी के हत्थे को पीटे जा रहा है।
बहुत देर बाद नीचे गाड़ी की आवाज सुनाई देती है और टूटे-टूटे पांव से मां कमरे में प्रवेश करती है।
टिफन को मेज पर रखकर-‘नीरू खाना खा लो’ -वह कुर्सी में धंस-सी जाती है।
‘नहीं...नहीं खाना हमें ये भोजन - नीरू टिफन को हाथ मारकर दूर फेंक देता है। सारा खाना बिखर जाता है। पिंकी भी सहमी-सी खड़ी सब देख रही है। उसका साहस नहीं पड़ रहा उठाकर रोटी मुंह में दबा ले।
|