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तिरंगा हाउस

मधुकांत

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :182
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9728
आईएसबीएन :9781613016022

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समकालीन कहानी संग्रह

अब उसने सोचा... भिखारी के नसीब में तो है नहीं खराब करने से अच्छा तो किसी कुत्ते को ही डाल दिया जाए। किसी का तो पेट भरे। सो गाड़ी से उतरकर वह दूर-दूर तक घूम आई पर उस स्टेशन पर उसे कोई जानवर न मिला... मायूस होकर वह पुन: गाड़ी में आ बैठी।

सुबह का हल्का-हल्का प्रकाश अन्धकार को निगल रहा था। उसकी टोकरी से बदबू निकलकर कम्पार्टमेंट में फैलने लगी थी। एक-दो सवारी उठकर इधर-उधर घूम भी रही थीं। सवारी उसके पास से निकलती तो नाक बन्द कर लेती लेकिन वापस लौटती तो जलती हुई आंखों में एक प्रश्न लिए उसे घूरती... क्या तुमने कोई लाश तो नहीं छुपा रखी है जिसमें संड़ांध उठने लगी है।’ हर बार बरफी अधिक सुकड़ जाती थी।

अब तो स्वयं उसके लिए भी टोकरी के पास बैठा रहना असह्य हो गया। उसने निश्चय किया चाहे जो भी हो अगले स्टेशन पर वह टोकरी को खाली कर ही देगी।

गाड़ी ज्वालापुर स्टेशन पर रुकी। अपनी टोकरी सम्भालते हुए उसने साथ वाले यात्री से पूछा... गाड़ी कितनी देर रुकेगी भाई-?’

‘थोड़ी देर तो रुकेगी माई जल्दी उतरो’... यात्री ने सोचा वह उतरेगी... वह तनिक खुश भी था...।

एक बार तो बरफी हिचकी भी लेकिन साहस कर झटपट उतर ही गयी।

थोड़ी दूरी पर ही उसने एक वृक्ष के सहारे टोकरी को उड़ेलते हुए कहा-‘जैसी भगवान तेरी इच्छा, किसी गरीब-गुरबे के मुँह में पड़ जाता तो अच्छा था, खैर... दिन निकल आया है अब भी कोई न कोई जानवर तो मुँह मारेगा ही।

कहीं गाड़ी न छूट जाए इस भय से वह झटपट अन्दर आ बैठी।

एक बार तो कई कौए उसके खाने पर झपटे लेकिन बिना मुंह मारे एक-एक करके सब उड़ गए।

गाड़ी चल पड़ी परन्तु बरफी की नजरें खिड़की से बाहर अपने पुण्य के खजाने को ढूँढता हुआ देख रही थी।

 

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