ई-पुस्तकें >> तिरंगा हाउस तिरंगा हाउसमधुकांत
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समकालीन कहानी संग्रह
एक स्टेशन के बाद दूसरा... दूसरे के बाद तीसरा... गुजरते चले गए...। उसकी नजरें उचक-उचक कर देखती रहीं लेकिन एक भी ऐसा व्यक्ति उसे न मिला जिसे रोटियाँ देकर वह थोड़ा पुण्य कमा सके।
मुजफ्फरनगर के स्टेशन पर गाड़ी ठहरी तो एक मैला-कुचैला-सा आदमी उसने खिड़की के सामने खड़ा पाया। बरफी की आंखों में चमक आ गई।
‘ओ...भाई...’ साहस कर उसने पुकार लिया। वह व्यक्ति खिड़की के करीब आ गया।
‘ले भइया ये खाणा खा लेना... देसी घी का है...’ बरफी ने पोटली खिड़की से बाहर निकाली।
‘मुझे भिखारी समझ रखा है-बुढिया-’ वह उस पर झल्ला-पड़ा?
सहमा हुआ हाथ बरफी ने अन्दर खींच लिया। उसे लगा भिखारी ने उसे गाली दे दी है। आज तक तो उसे बुढ़िया किसी ने कहा नहीं... पचास साल में भी कहीं कोई औरत बुढ़िया बन जाती है... भलाई का तो जमाना ही नहीं रहा।
उसे चैन तब आया जब वह व्यक्ति खिड़की के सामने से हट गया... ऐसे देख रहा था जैसे उसे खा ही जाएगा।
उस स्टेशन पर गाड़ी इन्जन की खराबी के कारण चार घण्टे लेट हो गई। उसे बार-बार यही भय खाये जा रहा था कहीं वह आदमी उधर फिर न आ जाए।
अनाज खराब करने से बहुत बड़ा पाप लगता है... यह उसने अच्छी प्रकार समझ रखा था और कुछ परसेंट पुण्य कमाने की लालसा अभी भी शेष थी... पर बेचारी बरफी क्या करे उसे तो कोई खाना लेने वाला ही नहीं मिल रहा था... इसमें उसका क्या दोष... सोच-सोचकर उसका दुख बढ़ता ही जा रहा था।
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