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तिरंगा हाउस

मधुकांत

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :182
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9728
आईएसबीएन :9781613016022

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समकालीन कहानी संग्रह

वह अभी पहला ही ग्रास तोड़ पाई थी कि एक भिखारी छोकरी पास आ खड़ी हुई... माता दो दिन से खाना नहीं खाया... एक रोटी... तुम्हारे बच्चे जिएं.... उसका हाथ पेट को मसल रहा था।

‘चल चल अपना काम कर’- बरफी ने ग्रास को दांतों के बीच कुचलते हुए फटकारा।

‘माई दो दिन से कुछ नहीं खाया’... छोकरी ने सारी परेशानियां अपने चेहरे पर लाकर अन्तिम प्रयास किया।

‘तो यहां क्या अपने खसम ने खाण आई सै... जा चली जा नहीं तो रांड की मुण्डी रगड़ दूंगी... दो टूक रोटी भी ना निगलन दियो-’ बरफी की गोल गोल आंखें और काला चेहरा बहुत भयानक हो गया था।

छोकरी सहम गई। जान किसको प्यारी नहीं होती। कहीं खाने के बदले उसे ही न चबा जाए इस डर से वह भाग गई।

गाड़ी में मौका मिले न मिले इसलिए सीट लेने से पहले शाम का खाना भी बच्चों को प्लेटफार्म पर ही खिला देना उचित समझा उसने। खाना तो अभी भी उसके पास बहुत बचा था इसलिए वह खुले मन से सबको खिला रही थी।

खाना खाकर उठे तो अचानक बच्चों का मन खराब हो गया। उन्हें उल्टी हो गई। एक बार तो दोनों को बहुत चिन्ता हुई। गर्मी का मौसम है शायद इसलिए... ये सोचकर बच्चों को कुल्ला करा दिया और गाड़ी में चढ़ा दिया।

खाने की पोटली खोलते हुए उसे लगा कहीं से दुर्गन्ध आ रही है। उसने आस-पास देखा कहीं कुछ न था। हाथ में रोटी उठाते ही वह जान गई कि दुर्गन्ध खाने में ही है। उसने झटपट खाने की पोटली बन्द कर दी। एक घबराई सी दृष्टि बच्चों पर डाली बच्चे गहरी नींद में सो रहे थे। अब वह समझी बच्चों ने क्यों उल्टी की थी।

खाना बहुत बच गया था। बार-बार पोटली पर नजर पड़ती और वह चिन्ता से घिर जाती। किसी गरीब-गुरबे के मुँह पड़ जाए तो खाना भी खराब न जाए और पुण्य भी हो, इस भावना के वशीभूत उसकी नजर इधर-उधर किसी गरीब को खोजने लगी।

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