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तिरंगा हाउस

मधुकांत

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :182
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9728
आईएसबीएन :9781613016022

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समकालीन कहानी संग्रह

बरफी रात देर तक अपनी चारपाई पर पड़ी करवट बदलती रही। उसकी आंखें दुखने लगीं लेकिन उनमें नींद न आई। दोनों बच्चे अपने बापू के साथ सो रहे थे। बरफी को झपकी आती तो कभी वह अपने आपको मछलियों को दाना खिलाती देखती तो कभी हर-की पौड़ी पर गोते लगाती हुई पाती। किस-किस नाम के गोते लगाने हैं उसने तोते की तरह रट लिए थे।

वह एक बार उठी भी लेकिन लगभग आधी रात हुई थी सो वह फिर लेट गई और सुबह जब उसकी आंख खुली तो दिन काफी चढ़ गया था।

‘उठो तो... देखो कितना दिन चढ गया है-’ हड़बड़ाई सी बरफी ने पति को झंझोड़ा।

नींद की खुमारी में पति ने घड़ी देखी। छह बजा रही थी। उसे विश्वास न आया। वह उछलकर उठ बैठा। आंखें मली... वास्तव में छह बजे चुके थे - ‘हरामजादी रात क्या गवार खाकर सोई थी... रानी है ना... रानी... दासियां आएंगीं उठाने, बोल अब कैसे जाएगी हरिद्वार...।’

बरफी के भी तेवर बदल गए- तुम तो अभी भी खर्राटे मार रहे हो... मुझे ही कोंणसी हरिद्वार की आग लगी है। एक मिन्ट आंख लगी बस उसमें सारा कसूर मेरा हो गया... तुम्हीं जाओ मैं कीतै ना जाणकी... पैर पीटती हुई बरफी रसोई की ओर चल पड़ी।

पति की नींद पूरी खुल गई थी। अपने क्रोध पर अब उसे पश्चाताप हो रहा था। खिसियाए से रसोईघर में पहुंचे- ‘देखो रानी तैयार हो जाओ - अगली बस से चल पड़ेंगे।’

‘नाही इब मैं कीतै नहीं जाणकी-बरफी अब और भी भारी पड़ गयी थी।

पति को एक घण्टा लगा समझाने-बुझाने में, जब जाकर बरफी तैयार हुई और फिर वे मुश्किल से दस बजे की गाड़ी से निकल पाए।

दिल्ली स्टेशन पर पहुँचे तो हरिद्वार की गाड़ी छूट चुकी थी। भागदौड़ में उन्होंने खाना भी नहीं खाया। शाम की गाड़ी से चलने का निश्चय किया गया और वे प्लेटफार्म पर बैठकर खाना खाने लगे। खाना खाकर पति बच्चों सहित बाहर घूमने चले गये।

घूम फिरकर लौटे तो बरफी ने सबको एक दायरे में बैठाकर फिर खाना परोस दिया और स्वयं भी खाने के लिए दो रोटियाँ हाथ पर रखकर बैठ गई।

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