ई-पुस्तकें >> तिरंगा हाउस तिरंगा हाउसमधुकांत
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समकालीन कहानी संग्रह
पुण्य
लोगों को तीर्थ-यात्रा के लिए जाते देखती तो बरफी के दिल में एक हूक-सी उठती और धीरे-धीरे यह बात उसके दिल में कुण्डली मारकर बैठ गई कि हर की पौड़ी पर स्नान किए बिना लोक-परलोक नहीं सुधर सकता।
हर साल सावन के महीने में पति से हरिद्वार चलने का आग्रह करती। पति थे व्यापारी। कभी उन्हें समय न होता तो कभी पैसा खर्च करने का मन न होता। कई वर्षों से बस-दाल रोटी की लड़ाई ही लड़ी जा रही थी। कोई न कोई दांव तो हर बार लगाते लेकिन पासा उल्टा ही पड़ता और वे हरिद्वार जाने से पीछे हट जाते थे।
इस वर्ष पति का पासा भी ठीक पड़ा। एक नम्बर दो नम्बर की जी खोलके कमाई की। कई दिनों से वे भी दो नम्बर की कमाई में से थोड़ा धन पुण्य के काम में व्यय करने की सोच रहे थे कि पत्नी ने भी अपनी हरिद्वार जाने की इच्छा दोहरा दी। इस बार पति ने उसे सहर्ष स्वीकार भी कर लिया।
रात देर तक विचार-विमर्श करने के बाद इसी सावन में दोनों ने हरिद्वार जाने का कार्यक्रम बना लिया। बच्चों को पता लगा कि बाबा-दादी हरिद्वार जा रहे हैं तो वे भी जिद कर बैठे। बच्चे तो भाग-भाग कर दस काम करेंगे ये सोचकर दोनों ने उन्हें ले जाने की स्वीकृति दे दी।
बरफी ने अगले दिन तूफानी दौरा किया। कई-कई सभाओं में भाषण दिया। तीर्थ-यात्रा की सूचना देने के लिए वह एक घर से दूसरे घर तक छुट्टे पैसों का बहाना लेकर जाती। भिखारियों को देने के लिए उसने एक और दो रुपये के सैकड़ों सिक्के इकट्ठे कर लिए।
बच्चों से कोरे कागज पर राम-राम-राम लिखवाया और उनके छोटे-छोटे टुकड़े बनाकर अपनी मुँह बोली बहन से उन पर्चियों को आटे की गोलियों में लिपटवाया। मछलियों को खिलाने के लिए ढेर सारी गोलियां बनवा ली उसने।
सुबह पांच वाली बस से चलकर दिल्ली जाना और वहां से ग्यारह वाली गाड़ी पकडकर हरिद्वार पहुँचने का निश्चय किया गया। सुबह जल्दी जाना था सो दो औरतों को अपने साथ लगाकर उसने कई दिन का खाना बांध लिया।
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