ई-पुस्तकें >> तिरंगा हाउस तिरंगा हाउसमधुकांत
|
9 पाठकों को प्रिय 344 पाठक हैं |
समकालीन कहानी संग्रह
‘क्या हो गया नीरू तुझे’ -मां ने पास जाकर डांटते हुए पूछा?
‘नहीं हमें नहीं छूना इन रोटियों को ...’
‘क्यों-?’
‘क्यों क्या अच्छी नहीं है...’
‘क्या है इनमें...?’
‘स्कूल के लड़के रोज चिड़ाते हैं।’
‘क्या कहते हैं-?’
‘कहते है-तुम्हारी मम्मी रोज होटल जाती है... गन्दी-गन्दी बातें करती है... तभी तो ये अच्छा खाना मिलता है...’।
‘कौन कहता है-ऐसे गन्दे लड़कों के साथ क्यों रहता है तूं’... नीरू को रोते-रोते मारने लगती है।
‘सब कहते हैं सब-’ नीरू रोता हुआ दूसरे कमरे में चला जाता है। झट से पिंकी बिखरी हुई रोटियों को उठाकर खाने लगती है।
यह अब सिर थामकर चारपाई पर बैठ जाती है-ऐसा तो घर में पहले कभी हुआ नहीं। जिनका पेट पालने के लिए वह दुनिया से लड़ रही है आज उन्हीं की नजरों में वह ओछी हो गयी है फिर किसके लिए... लेकिन वह क्या करे...।
आज इनका बाप जिन्दा होता तो... उसकी आंखें तैरने लगती हैं। औरत तो अपने मर्द के कंधों पर कूदती है लेकिन उनके कंधों पर मेरे लिए स्थान ही कहां था... उनके ऊपर तो सदा मजदूरों की समस्याओं और उनके दु:ख दर्द का भार चढ़ा रहता था।
हर बार से यही आश्चर्य होता था कि एक व्यवसायिक परिवार में कैसे एक संघर्षशील आदमी पैदा हो जाता है। जिनका उद्देश्य गरीबों का शोषण करना हो तो उनका हिमायती कैसे बन सकता है। वंश परम्परा को तो उन्होंने एकदम झुंड कर दिया था। कहीं पास पड़ोस, रिश्ते-नाते, कहीं भी तो कोई उनके विचारों जैसा नहीं था। पर शायद जिसको जो बनना होता है वही बनकर रहता है इसमें किसी का कुछ बस नहीं चलता।
|