ई-पुस्तकें >> तिरंगा हाउस तिरंगा हाउसमधुकांत
|
9 पाठकों को प्रिय 344 पाठक हैं |
समकालीन कहानी संग्रह
ईद का जश्न था। मुसलमानों की तरफ बड़ी रौनक थी। रात हिन्दुओं ने भी बड़े जोर-जोर से कीर्तन किया था।
‘सोने भी नहीं देते, न जाने पागल हो गए हैं क्या, ऐसे भी कोई अल्लाह का नाम लिया जाता है - मुसममान सोचते रहते थे।
‘सुबह-सुबह क्या रोना-पीटना लगा दिया-‘ हिन्दू झुंझला रहे थे। दस बजे के करीब एकदम भगदड़ मच गई। घरों के किवाड़ जुड़ गए। मस्जिद के सामने एक सुअर पहुँच गया था कि लड़ाई छिड़ गई। आज तो लाला की दुकान को भी लूट लिया गया।
चारों ओर गोलियों और चीखों की आवाज गूँजने लगी। हथियारबन्द पुलिस आ गई। जो सन्नाटा दिन-भर छाया रहा वह सायं ढलते अधिक गहरा गया।
कहीं तनिक-सी आवाज होती तो जूतों की आवाजें फैलने लग जाती। सुबह पार्क के बीचो-बीच एक लाश पड़ी थी। तुरन्त खबर सारी बस्ती में फैल गई-रोशन अली सिरड़ी बाबा मर गया।
पार्क के एक ओर मौलवी साहब कई साथियों सहित आ गए तथा दूसरी ओर पुजारी अपने साथियों सहित कह रहे थे-‘इसका नाम रोशन है-यह हिन्दू था इसलिए इसका क्रिया-कर्म हिन्दुओं द्वारा किया जाएगा।’
‘अरे छोड़ो मियां क्यों झगड़ा बढ़ाते हो इसका नाम रोशन अली है। यह पक्का मुसलमान था। हमने इसे नमाज पढ़ते देखा है-मुसलमान ही इसकी कबर बनाएंगे।’ - मौलवी जी ने कहा।
दोनों ओर से आंखें फिर जलने लगीं थीं और धीरे-धीरे खाकी वर्दियों की संख्या बढ़ने लगी।
एक बड़ी खाकी वर्दी ने बीच में आकर कहा-‘पहले लाश का पोस्टमार्टम होगा ...’
नहीं पहले यह विचार हो जाना चाहिए यह हिन्दू है या मुसलमान- एक खद्दरधारी युवक ने ऊंची आवाज में कहा- ‘आप इसकी पोटली को खोलकर देखो शायद कुछ पता चल जाए।
|