ई-पुस्तकें >> तिरंगा हाउस तिरंगा हाउसमधुकांत
|
9 पाठकों को प्रिय 344 पाठक हैं |
समकालीन कहानी संग्रह
‘हां यह ठीक है’ - थानेदार ने आगे बढ़कर ठूंठ से पोटली उतारकर खोल दी - गीता, कुरान, एक ब्रेड का टुकड़ा, कुछ पुराने कपड़ों के चिथड़े बस ...।
सबकी आंखें आश्चर्य से फटी रह गईं। जिन आंखों में जिज्ञासा थी लुप्त हो गई। सारे दिन मन्दिर, मस्जिद में अलग-अलग बैठक होती रही। बाहर से भी कुछ व्यक्ति आए लेकिन कोई भी सम्प्रदाय निर्णय न कर सका कि लाश का क्या किया जाए। सांझ बस्ती में उतरती जा रही थी लेकिन लाश अभी भी ठूंठ के नीचे सूनी पड़ी थी।
एक बार फिर सब लोग पार्क के इर्द-गिर्द एकत्रित हुए, तर्क-वितर्क हुआ लेकिन कोई ऐसा हल न निकल सका जिसे दूसरा सम्प्रदाय मानने को तैयार हो। अन्त में सर्वसम्मति से लाश को ठिकाने लगाने की बात कल तक के लिए स्थगित कर दी और लोग अपने-अपने घरों को चले गये।
लाश की सुरक्षा के लिए एक सिपाही को उस पार्क में तैनात कर दिया। रात श्वानों के भौंकने की आवाज, सन्नाटा तोड़ती, छोटे बच्चों के रोने का स्वर उभर उठता या कभी-कभी भारी जूतों का स्वर सुनाई पड़ता।
सुबह सवेरे अचानक फिर उत्तेजना गर्म हो गई। घरों से निकलकर लोग तेजी से पार्क के पास इकट्ठे हो गए। पार्क में से लाश गायब थी। ‘यह हिन्दुओं का काम हो सकता है’...
यह पाप मुसलमानों ने किया है। रात को पुलिस से मिलकर लाश उठवा ली है....
|