ई-पुस्तकें >> तिरंगा हाउस तिरंगा हाउसमधुकांत
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समकालीन कहानी संग्रह
लौंडी को तीन दिन के लिए उस ठूंठ से बांध दो, भूखी प्यासी रहेगी तो अकल दुरुस्त हो जाएगी- फैसला सुना दिया गया। उसके अब्बा बहुत गिड़गिड़ाए लेकिन हिन्दुओं पर आया क्रोध किसी प्रकार शान्त न हुआ।
अगले दिन उसके मृत शरीर को ठूंठ के साथ बंधा हुआ पाया। झगड़ा उस दिन भी बहुत हुआ था। सारे दिन वह कमरे में मुँह ढ़के पड़ी रही थी। कभी-कभी चीखने की आवाज गूंजती तो दिल दहल उठता था। कुत्ते भी मारे भय के इधर-उधर दुबक गए थे। नीचे से भारी-भारी पांवों की आवाज आती। सारे दिन मौत का-सा सन्नाटा छाया रहा, एक क्षण के लिए कोई खिड़की खुलती, उसमें से दो आंखें बाहर झांकती लेकिन दूसरे ही क्षण खिड़की बन्द।
रात कैसी ठण्डी हवा चली थी। रात अब्बा घर पर नहीं थे उसने सारी रात दिया जलाए आंखों में काटी थी। चार हिन्दू और दो मुसलमान मारे गए थे उस रात।
‘उस्ताद जी, तो बस दो बेंत ही लगाएंगे... मैं नहीं आ सकती तुम्हारे मोहल्ले में’ - वह अब भी चलते हुए कांप गयी थी।
‘मुमताज, मैं कॉपी लेकर नदी के पुल पर जाऊंगा-तुम आना-’ मोहन ने उसकी विवशता को समझ लिया था।
‘हां-हां ठीक है। जरूर आना मोहन, ठीक छ: बजे- वह आश्वस्त हो गई थी।
‘हां ठीक है-कहते हुए दानों पगडंडी पर आकर अलग हो गए।
किशोरी लाल ने तखड़ी बांटो को पोंछते हुए चिल्ला कर पूछा- ‘क्या कर रहे हो सिरड़ी बाबा?’
‘तमाशा - तमाशा देख रहा हूँ - मैले दांतों को फैलाकर वह जोर से हंसा।
‘किसका तमाशा - उसका हाथ रुक गया था। लाला उसकी बातों को बड़े ध्यान से सुनता था। कभी-कभी बाबा हंसते-हंसते मटके का नम्बर बोल देता था। लाला ने कई बार उसकी बात को अजमा कर रुपया कमाया था। इनका - उनका - उसकी उंगली दोनों की ओर गई।
‘ये क्या तमाशा करते हैं -?’
‘करते हैं लाला, करते हैं... अपने-अपने देवताओं की लड़ाई कराते हैं... खूब... अपनी ही पीठ में छुरा घोंप लेते हैं... समझे...? फिर वह देर तक हंसता रहा।
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